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________________ ( ४४ ) हरिभद्रसरि ने प्रायः अपने सभी ग्रन्थों के अन्त में, किसी न किसी तरह अर्थ-सम्बन्ध घटा करके 'भवविरह' अथवा 'विरह' इस शब्द का प्रयोग अवश्य किया है। इसलिये वे 'विरहाङ्क' कवि या ग्रन्थकार कहे जाते हैं। इनके ग्रन्थों के सबसे पहले टीकाकार जिनेश्वरसूरि ने (वि. सं० १०८०) अष्टकप्रकरण की टीका में, अन्त में जहाँ पर 'विरह' शब्द आया है वहाँ पर, इस बारे में स्पष्ट लिखा भी है कि 'विरह' शब्देन हरिभद्राचार्यकृतत्वं प्रकरणस्यावेदितम्, विरहाङ्कस्वाद् हरिभद्रसूरेरिति ।' ऐसा ही उल्लेख अभयदेवसूरि (पंचाशकप्रकरण की टीका में) और मुनिचन्द्रसूरि (ललितविस्तरापंजिका में) आदि ने भी किया है। इसी आशय से कुवलयमाला के कर्ता ने भी यहाँ पर श्लेष के रूप में 'भवविरह' शब्द का युगल प्रयोग कर हरिभद्रसूरि का स्मरण किया है । साथ में उनकी 'समराइच्चकहा' का भी उल्लेख है, इससे इस कुशङ्का के लिये तो यहाँ पर किञ्चित् भी अवकाश नहीं है कि इन हरिभद्र के सिवा और किसी ग्रन्थकार का इस उल्लेख में स्मरण हो। इसी तरह, इस कथा की प्रशस्ति में भी हरिभद्रसूरि का उल्लेख मिलता है, जिसका विचार आगे चल कर किया जायगा। इससे स्पष्ट है कि हरिभद्र को, शक संवत् ७००, अर्थात् विक्रम संवत् ८३५, ई. सं. ७७८ से तो अर्वाचीन किसी तरह नही मान सकते । -महाकवि धनपाल ने भी तिलकमञ्जरीकथा की पीठिका में इस ग्रन्थकी निम्न प्रकार से प्रशंसा की है निरोद्ध पार्यते केन समरादित्यजन्मनः । प्रशमस्य वशीभूतं समरादि त्यजन्मनः ॥ इसी तरह देवचन्द्रसूरि ने 'सन्तिनाहचरियं' की प्रस्तावना में भी इस कथा-प्रबन्धका स्मरण किया है । यथा वंदे सिरिहरिभदं सरि विउसयणणिग्गयपयावं। जेण य कहापबन्धो समराइच्चो विणिम्मविओ। [-पीटर्सन रिपोर्ट, ५, पृ० ७३ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002118
Book TitleHaribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size4 MB
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