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________________ ( २१ ) प्रपञ्चकथा बनाई और उसके अन्त में उक्त प्रकार से हरिभद्रसूरि की प्रशंसा की। ___ इसी वृत्तान्त का यथावत् सूचक संक्षिप्त उल्लेख मुनिसुन्दरसूरि ने उपदेशरत्नाकर में और रत्नशेखरसूरि ने श्राद्धप्रतिक्रमणार्थदीपिका टीका (सं० १४९६) में किया है। दोनों उल्लेख क्रमशः इस प्रकार (१) 'ये पुनः कुगुर्वादिसङ्गत्या सम्यग्दर्शनचारित्राणि वमन्ति ते शुभधर्मवासं प्रतीत्य वाम्याः । बौद्धसङ्गत्यकविंशतिकृत्वोऽर्हद्धर्मत्यागिश्रीहरिभद्रसूरिशिष्यपश्चात्तदुपज्ञललितविस्तराप्रतिबुद्धश्रीसिद्धवत् ।' -उपदेशरत्नाकर, पृ० १८ (२) 'मिथ्यादृष्टिसंस्तवे हरिभद्र सूरिशिष्यसिद्धसाधुतिम्, स सौगतमतरहस्यमर्मग्रहणार्थं गतः । ततस्तैर्भावितो गुरुदत्तवचनत्वान्मुस्कलापनायागतो गुरुभिर्बोधितो बौद्धानामपि दत्तवचनत्वान्मुत्कलापनार्थं गतः । एवमेकविंशतिवारान् गतागतमकारीति । तत्प्रतिबोधनार्थं गुरुकृत ललितविस्तराख्यशक्रस्तववृत्त्या दृढं प्रतिबुद्धः श्रीगुरुपार्वे तस्थौ ।' --श्राद्धप्रतिक्रमणार्थ दीपिका । __ इस प्रकार इन ग्रन्थकारों के मत से तो सिद्धर्षि साक्षात् हरिभद्रसरि के ही हस्त-दीक्षित शिष्य थे । इनके मत को कहां तक प्रामाणिक समझना चाहिए, यह एक विचारणीय प्रश्न है। क्योंकि ये तो सिद्धर्षि के दीक्षागुरु, जो गर्गमुनि हैं और जिनकी पूर्व-गुरुपरम्परा तक का उल्लेख सिषि ने स्वयं अपनी कथा की प्रशस्ति में किया है, उन का सूचन तक बिल्कुल नहीं करते और खुद हरिभद्र के ही पास इनका दीक्षा लेना बतलाते हैं । सो यह कथन स्पष्टतया प्रमाण विरुद्ध दिखाई दे रहा है। सिवा सिद्धर्षि जैसे अपूर्व प्रतिभाशाली पुरुष को इस तरह २१ बार इधर-उधर धक्के खिला कर एक बिल्कुल भोंदू जैसा चित्रित किया है इस लिए इनके कथन की कीमत बहुत कम आंकी जा सकती है। १. द्रष्टव्य-मणिलाल नभुभाई द्विवेदी द्वारा अनूदित बड़ोदा राज्य की ओर से प्रकाशित 'चतुर्विंशतिप्रबन्ध' का गुजराती भाषान्तर, पृ. ४७-४८ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002118
Book TitleHaribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size4 MB
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