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________________ ( २० ) अपना मस्तक रख कर, स्वधर्म पर से जो इस प्रकार अपना चित्तभ्रंश हुआ उसके लिए पश्चात्ताप करने लगे। गुरुजी ने मिष्ट वचनों से उन्हें शान्त कर उनके मन को संतुष्ट किया। अन्त में वे फिर जैनधर्म के महान् प्रभावक हुए। इस प्रकार हरिभद्र के बनाये हुए ग्रन्थ अवलोकन से सिद्धर्षि की मिथ्याभ्रान्ति नष्ट हई और सद्धर्म की प्राप्ति हुई इसलिये उन्होने हरिभद्रसूरि को अपना धर्मबोधकर गुरु माना और ललितविस्तरा को मानों अपने ही लिये बनाई गई समझा। इसके सिवा प्रभावकचरित के कर्ता इन दोनों में परस्पर और किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं मानते। परन्तु दूसरे कितने एक ग्रन्थकार प्रभावकचरित के इस कथन के साथ पूर्ण मतैक्य नहीं रखते। उनके कथनानुसार तो सिद्धर्षि और हरिभद्र दोनों समकालीन थे और सिद्धर्षि को बौद्ध संसर्ग के कारण स्वधर्म भ्रष्ट होते देख कर उनको प्रतिबोध करने के लिये ही हरिभद्रसूरि ने ललितविस्तरावृत्ति बनाई थी। इन ग्रन्थकारों में मुख्य कर राजशेखरसूरि का (सं० १४०५ में) प्रबन्धकोष अथवा चतुर्विंशतिप्रबन्ध है। इस ग्रन्थ में हरिभद्रसूरि का जो चरित-प्रवन्ध है उसमें साथ में सिद्धषि का भी वर्णन किया हआ है। इस प्रबन्ध में तो सिद्धर्षि को साक्षात् हरिभद्र का ही दीक्षित शिष्य बतलाया गया है। गर्गमुनि वगैरह का नामनिर्देश तक नहीं है। प्रकृत बात के विषय का बाकी सब हाल प्रायः ऊपर (प्रभावक चरित) के जैसा ही है। मात्र इतनी विशेषता है कि, बौद्ध गुरु के पास से जब सिषि अपनी प्रतिज्ञानसार हरिभद्रसूरि को मिलने के लिये आये तब बौद्ध गुरु ने भी उन्हें पुनर्मिलन के लिये प्रतिज्ञाबद्ध कर लिया था। हरिभद्रसूरि ने उनको सद्बोध दिया जिससे उनका मन फिर जैन धर्म पर श्रद्धावान् हो गया। परन्तु प्रतिज्ञानिर्वाह के कारण वे पुनः एक बार बौद्ध गुरु के पास गये । वहाँ उसने फिर उनको बहकाया और वे फिर हरिभद्र से मिलने आये। हरिभद्र ने पुनः समझाया और पुनः बौद्धाचार्य के पास गये । इस प्रकार २१ बार उन्होंने गमनागमन किया। आखिर में हरिभद्र ने उन पर दया कर प्रबलतर्कपूर्ण ललितविस्तरा वृत्ति बनाई, जिसे पढ़कर उनका मन सर्वथा निर्धान्त हुआ और वे जैनधर्म पर स्थिरचित्त हुए। इसके बाद उन्होंने १६ हजार श्लोक प्रमाण उपमितिभव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002118
Book TitleHaribhadrasuri ka Samaya Nirnay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinvijay
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages80
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Principle, & Religion
File Size4 MB
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