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नेमिद्धतम्
शनार्थ:-तत्र-वहाँ, तव--तुम्हारा ( नेमि का), निरुपम रूपम्अनुपमेय रूप को, दृष्ट्वा-देखकर, तासां पीनस्तनीनाम्-फूल तोड़ती हुई स्थूल स्तनों वाली वनिताओं के, अन्तर्मनसिजरसोल्लासलीलालस -हृदय में काम के उद्दीप्त हो जाने से अलसाई हुई, कर्णाम्भोजोपगतमधुकृत्-कानों में ( पहने गये ) कमल पर मँडराते हुए भ्रमरों से, संभ्रमोद्यत्-भयभीत, लोलापाङ्ग:-चञ्चल कटाक्षों से, विलासैः-रतिभाव द्योतक हाव-भाव, लोचनैःआँखों से, यदि न रमसे-यदि रमण ( विहार ) नहीं किया तो अपने को, वञ्चितोऽसि-प्रतारित समझो ( जीवन-लाभ से ठगा गया समझो)। ___अर्थः - हे नाथ ! वहाँ ( उस केलिगिरि के उद्यान में ) तुम्हारे अनुपमेय रूप को देखकर फूल तोड़ती हुई स्थूल स्तनों वाली स्त्रियों के हृदय में काम के उद्दीप्त हो जाने से अलसाई हुई तथा उनके द्वारा कानों में पहने गये कमल पर मँडराते हुए भ्रमरों से भयभीत, चञ्चल कटाक्षों वाली, रतिभाव-द्योतक ( स्त्रियों की ) आँखों से यदि तुम ( नेमि ) ने विहार नहीं किया तो अपने को ( जीवन-लाभ से ) प्रतारित ही समझो । तस्मिन्नुद्यन्मनसिजरसाः प्रांशुशाखावनाम
व्याजादाविःकृतकुचवलीनाभिकाञ्चीकलापाः । संधास्यन्ते त्वयि मृगदृशस्ता विचित्रान् विलासान्,
स्त्रीणामाद्यं प्रणयवचनं विभ्रमो हि प्रियेषु ॥३०॥
अन्वयः - ( हे नाथ ! ) तस्मिन्, उद्यन्, मनसिज रसाः, प्रांशुशाखावनामव्याजाद्, आविःकृतकुचवलीनाभिकाञ्चीकलापाः, मृगदृशः, ता, विचित्रान् विलासान्, त्वयि, संधास्यन्ते, हि, स्त्रीणाम्, प्रियेषु, विभ्रमः, आद्यम्, प्रणयवचनम् ।
तस्मिन्निति । तस्मिन्नुद्यन्मनसिजरसाः हे नाथ ! केलिपर्वते प्रकटीभवन्कामरागयुक्ताः ता पुष्पावचायिकाः कामिन्यः । प्रांशुशाखावनामव्याजाद् पुष्पशाखानीचै मनमिषात् । आविःकृतकुचवलीनाभिकाञ्चीकलापाः प्रकाशितः स्तनवलीनाभिकटिबन्धकलापा: । मृगदृशस्ता मृगाक्षिपुष्पावचायिकाः कामिन्यः । विचित्रान् विलासान् विविधान् नेत्रावलोकन विशेषान् । त्वयि संधास्यन्ते भवति संयोक्ष्यन्ते । हि स्त्रीणां प्रियेषु यतः कामिनीनां कान्तेषु विषये इति भावः । विभ्रमः आद्यं प्रणयवचनं विलास एव प्रथमं प्रेमवाक्यं
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