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नेमिदूतम्
की दृष्टि में हृदय से पति का वरण करना कोई महत्त्वपूर्ण नहीं है। अच्छा यही है कि ऐसे पति, जिसका हृदय से वरण किया गया है, के द्वारा परित्यक्ता को चाहिए कि वह उसके बारे में कोई चिन्ता न करे
आहूयनामवददथ सा निर्दयो योऽत्यजत्त्वा
मित्थं मुग्धे ! कथय किमियद्धार्यते तस्य दुःखम् ।। १०२ ।। पुत्री के दुःख से दुःखी होकर वह करुण विलाप करती है तथा राजीमती से कहती है -हे पुत्री शोक का परित्याग करो, प्रसन्नता को प्राप्त करो तथा इष्टदेव तुम्हारे ऊपर कृपा करें, जिससे एकान्त में पति के द्वारा किया गया गाढ़ालिंगन, गले में लिपटी लताओं की तरह, पुनः छूट न जाय
वत्से ! शोकं त्यज भज पुनः स्वच्छतामिष्टदेवाः, कुर्वन्त्येवं प्रयत मनसोऽनुग्रहं ते तथामी । भर्तुर्भूयो न भवति रहः संगतायास्तथा ते,
सद्यः कण्ठच्युतभुजलता ग्रन्थिगाढोपगूढम् ।। १०४ ।। उक्त कथन से भी पूर्वोक्त बात का ही समर्थन होता है। यदि ऐसी बात नहीं थी तो राजीमती ने अपनी माता के उपदेशपरक सभी वाक्यों की अवहेलना क्यों कर दी
मातु: शिक्षाशतमलमवज्ञाय ।। १०६॥ उग्रसेन - उग्रसेन के सम्बन्ध में 'नेमिदत में जो कुछ मिलता है वह अत्यन्त अल्प है । प्रथम श्लोक से केवल इतना ही ज्ञान होता कि राजीमती उनकी पुत्री थी। पश्चात्, उग्रसेन का जो वर्णन प्राप्त होता है उससे यही विदित होता है कि ये वात्सल्य प्रिय थे । सन्तति के सुख में ही इनका सुख था। साथ ही ये धार्मिक थे । पातिव्रत धर्म का इनकी दृष्टि में सर्वोच्च स्थान था। यही कारण है कि राजामती की इच्छा को जानकर उन्होंने उसे रामगिरि पर नेमिनाथ के पास जाने की अनुमति प्रदान कर दी -
प्राप्यानुज्ञामथ पितुरियं त्वां सहास्माभिरस्मिन्,
सम्प्रत्यद्रो शरणमबला प्राणनाथं प्रपन्ना ॥ १०९ ।। इस प्रकार स्पष्ट है कि 'नेमिदूत' में जिन पात्रों का प्रत्यक्ष वा परोक्ष चित्रण किया गया है, वे वस्तुतः चारित्रिक विविधताओं से युक्त हैं।
-धीरेन्द्र मिश्र
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