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नेमिदूतम्
पवनदूतम्
महाकवि 'मेरुतुङ्ग' के लगभग दो शताब्दी बाद 'पवनदूत' नामक स्वतन्त्र दूतकाव्य के प्रणेता 'वादिचन्द्र' की 'पार्श्वपुराण', 'ज्ञान-सूर्योदय' ( नाटक ), 'पाण्डपुराण,' यशोधर-चरित आदि ग्रन्थ भी हैं। 'मेघदूत' की तरह 'पवनदूत' भी मन्दाक्रान्ता छन्द में लिखा गया है। इसके वर्ण्य-विषय का संक्षिप्त परिचय पहिले दिया जा चुका है। वादिचन्द्र' ने 'पावपुराण' की रचना सन् १५८३ ई० में; 'श्रीपाल आख्यान' की १५९४ ई० में तथा 'ज्ञानसूर्योदय' नाटक की १५९१ ई० में की। फलतः इन का समय १६वीं शती का उत्तरार्ध माना गया है। पाश्र्वाभ्युदय
इसके प्रणेता 'जिनसेन" द्वितीय 'वीरसेन' के शिष्य थे । अपने गुरुभाई विनयसेन के प्रोत्साहन पर इन्होंने इस अप्रतिम काव्य की रचना की। काव्य के प्रति सर्ग के अन्त में जिनसेन को अमोघवर्ष का गुरु बताया गया है। राष्ट्रकूटवंशीय अमोघवर्ष कर्नाटक तथा महाराष्ट्र का शासक था, जो ८७१ वि० सं० ( = ८१४ ई० ) में राज्यासीन हुआ था ।
चार सर्गों में विभक्त 'पार्वाभ्यूदय' में कुल पद्य ३६४ हैं। भाषा प्रौढ़ और मेघदत की तरह इसमें मन्दाक्रान्ता छन्द का प्रयोग किया गया है । समस्यापूर्ति के रूप में मेघदूत के समग्र पद्य इस काव्य में प्रयुक्त हैं, जिसका आवेष्टन तीन रूपों में पाया जाता है-(१) पादवेष्टित ( मेघदूत का केवल एक चरण ); (२) अर्ध वेष्टित ( दो चरण ); (३) अन्तरितावेष्टित जिसमें एकान्तरित, द्वयन्तरित आदि कई प्रकार हैं। 'एकान्तरित' में मेघदूत के किसी श्लोक के दो पाद रखे गये हैं जिनके बीच में एक-एक नये पाद निविष्ट हैं । द्वयन्तरित में दो पादों के बीच में दो नये पादों का सन्निवेश है। और इस प्रकार मेघदूतीय मन्दाक्रान्ता के समन चरण इस काव्य में निविष्ट कर दिये गये हैं । इसमें २३ वें तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ स्वामी की तीव्र तपस्या के अवसर पर उनके पूर्व भव के शत्रु शम्बर के द्वारा उत्पादित कठोर क्लेशों तथा शृङ्गारिक प्रलोभनों का बड़ा ही रोचक वर्णन किया गया है। मेघदूत १. संस्कृत साहित्य का इतिहास ( बलदेव उपाध्याय ); पृ० ३२९ । २. कवि का समय अष्टम शती के अन्तिम चरण से लेकर नवम शती के
द्वितीय चरण तक मानना सर्वथा समीचीन है। वहीं, पृ० ३२७
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