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नेमिदूतम्
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दोनों को; प्रयातुम् - जाने के लिए, त्वरयति - उत्सुक करती है, प्रेरित करती है, प्रायेण - प्रायः, एताः - स्नेहाभिभूत, प्रियजनमनोवृत्तयः - प्रियजनों की चित्तवृत्तियाँ, अप्राप्तिभावात् - संयोग न होने के कारण, इष्टेअभिलषित, वस्तुनि - पदार्थ के विषय में, उपचितरसाः -- बढ़े हुए रस ( अभिलाष ) वाले ( होकर ), प्रेमराशीभवन्ति -- प्रेमपुंज के रूप में परिणत हो जाते हैं ।
अर्थः यह राजीमती तुम्हारे संयोग के निमित्त व्याकुल चित्त की उत्कण्ठा से चिरकाल तक स्नेहाभिभूत होकर तुम्हारे प्रति हम ( मुझे और सौविदल्ल) दोनों को जाने के लिए प्रेरित करती है; प्रायः स्नेहाभिभूत प्रियजनों की चित्तवृत्तियाँ संयोग न होने के कारण अभिलषित पदार्थ के विषय में बढ़े हुए आस्वाद से युक्त होते हुए प्रेमपुञ्ज के रूप में परिणत हो जाता है ।
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टिप्पणी: - 'प्रेमराशी - भवन्ति' - स्नेह और प्रेम दोनों को एक नहीं कहा जा सकता | वियोगावस्था में अभिलषित वस्तु की अप्राप्ति में उसके प्रति कुछ न कुछ कल्पना होती रहती है । फलस्वरूप एक ऐसी अवस्था हो जाती है कि वियोगी या विरहिणी का उस अभिलषित वस्तु के अभाव में रह पाना सम्भव नहीं होता, यही 'प्रेम' है तथा 'अभीष्ट' वस्तु के लिए व्यापार करना 'स्नेह' और उसके बिना नहीं रह पाना 'प्रेम' है । स्नेह मरता नहीं अपितु विरह में स्नेह 'प्रेमपुञ्ज' बन जाता है । संयोग की सात अवस्थाएं होती हैं जहाँ स्नेह और प्रेम का अलग-अलग कथन है
" प्रेक्षा दिदृशा रम्येषु तच्चिन्तात्वभिलाषकः ।
रागस्तत्सङ्गबुद्धि: स्यात्स्नेहस्तत्प्रवणक्रिया || तद्वियोगासहं प्रेम रतिस्तत्सहवर्तनम् ।
शृङ्गारस्तत्समं क्रीडा संयोगः सप्तधा क्रमात् " ॥ तस्माद्बालां स्मरशरचयैः दुस्सहैर्जर्जराङ्गीं,
सम्भाव्यैनां नय निजगृहान् सत्वरं यादवेन्द्र ! । प्रीत्या चास्या मधुरवचनाऽऽश्वासनाभिः कृपार्द्रः, प्रातः कुन्दप्रसवशिथिलं जीवितं धारयेथाः ॥१२१॥ (हे ) यादवेन्द्र !, तस्मात्, सम्भाव्य, दुस्सहै:, स्मरशरचयः,
अन्वयः
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