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नैमिदूतम्
. [ ११९ नास्ति नहि वर्तते, तव सादृश्यमेकस्मिन् वस्तुनि क्वापि नास्ति इति भावः ॥ १११ ॥
शमार्थः - नृवर-नरश्रेष्ठ ! शिखरिणि-गिरि में ( तुम्हारी ), दुल्लंध्यत्वम् -निश्चलता, महत्ता, बड़प्पन, पयोधौ- समुद्र में, गाम्भीर्यम्( तुम्हारी ) गम्भीरता, उाम् - पृथिवी मे, स्थैर्यम् -( तुम्हारी ) स्थिरता, शिखिनि-अग्नि में, तेज:-( तुम्हारा ) प्रताप, तेज़, मदने-कामदेव में, रूपसौन्दर्यलक्ष्मीम्-( तुम्हारा ) रूप लावण्य, बुद्ध:-तथागत में, बुद्ध में, क्षान्तिम्-(तुम्हारी) क्षमा (आदि गुणों की), च-तथा, कलयामि-सम्भावना करती हूँ, इति-एक अव्यय, हन्त- खेद है कि, भीरु-हे डरपोक !, क्वचिदपि-कहीं भी, एकस्मिन्-एक जगह, ते-तुम्हारे, सादृश्यम्-- समान, तुल्य, गुणानाम् --गुणों का, वृन्दम् -- समूह, न - नहीं, अस्ति-है । ____ अर्थः - हे नरश्रेष्ठ ! गिरि में ( तुम्हारा ) बड़प्पन, समुद्र में ( तुम्हारी) गम्भीरता, पृथिवी में ( तुम्हारी) स्थिरता, अग्नि में ( तुम्हारा ) तेज़, कामदेव में ( तुम्हारा ) रूप लावण्य तथा बुद्ध में ( तुम्हारी ) क्षमा ( आदि गुणों के होने की ) मैं ( राजीमति ) सम्भावना किया करती हूँ, ( परन्तु ) हे भीरु ! खेद है कि कहीं भी एक जगह सम्पूर्ण रूप से तुम्हारी समानता नहीं है।
हिप्पणीः - उक्त स्थल में 'भीरु' शब्द का प्रयोग, राजीमती के त्याग करने के कारण, 'नेमि' के लिए किया है। एतानीत्थं विधरमनसोऽस्वीकृतायास्त्वया मे,
दुःखार्तायाः क्षितिभृति दिनानीश ! कल्पोपमानि । आसन्न स्मिन्मदनदहनोद्दीपनानि प्रकामं,
दिकसंसक्तप्रविरसघनव्यस्तसूर्यातपानि ॥ ११२ ॥
अन्वयः - ( हे ) ईश !, त्वया, अस्वीकृतायाः, मे, विधुरमनसः, दुःखार्तायाः, अस्मिन्, क्षितिभृति, इत्थम्, मदनदहनोद्दीपनानि, दिक्संसक्तप्रविरसघनव्यस्तसूर्यातपानि, एतानि, दिनानि, प्रकामम्, कल्पोपमानि, आसन् ।
एतानीत्थमिति । ईश ! त्वया अस्वीकृतायाः हे नाथ ! भवता, नेमिना इति भावः, परित्यक्तायाः, राजीमत्याः । मे विधुरमनसः दुःखार्तायाः मम
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