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नेमिदूतम्
वेलांके आगतां विमलसलिलां धाराप्रवाहोत्सङ्गे प्राप्तां निर्मलजलाम् । तां सरितं द्रक्ष्यसि नदीम् अवलोकयिस्यसि । यां वारिधिर्वीचिहस्तः यां नदी समुद्रतरङ्गकरैः । आलिंग्य यन्मुखम् असकृद्, आश्लिष्य नद्याराननम् अधरमित्यर्थः, वारं वारं पिबन् । क्षणाद्धं नोपरमति क्षणमात्रमपि न विरमति । ज्ञातास्वादः क: यतो हि अनुभूतकामिनीसंभोगसुखः ( ज्ञातः स्वादो येन सः ज्ञातास्वादः; बहुप्री० ) पुरुषः । विवृतजघनां विहातुं समर्थः प्रदर्शित-कटिपूर्वभागां ( विवृतं जघनं यस्याः ताम् विवृतजघनाम्, बहुव्री० ) त्यक्तुं (वि/हा+तुमुन् ) योग्य इति ॥ ४५ ॥ ___ शब्दार्थः -- त्वम्-तुम ( नेमि ), पूर्वोद्दिष्टाम्-पहिले कही गई, वेलांके--प्रवाह के गोद में, आगताम्-आई हुई, विमलसलिलां तो सरितम् -निर्मल जल वाली उस नदी को, द्रक्ष्यसि-देखोगे, याम्-जिस (नदी) को, वारिधिर्वीचिहस्तैः- समुद्र अपने लहर रूपी हाथों के द्वारा, आलिङ्गयआलिङ्गन कर, यन्मुखम् -नदी के मुख अर्थात् अधर को, असकृद् - वारम्वार, पिबन्-पीते हुए, क्षणार्द्धम् --पलभर भी, न-नहीं, उपरमतिविरत होता है, ( क्योंकि ) ज्ञातास्वाद:-जिसने स्त्री के सम्भोग-सुख का अनुभव कर लिया है ऐसा, क:-कौन पुरुष, विवृतजघनाम्-उघड़ी जंघाओं वाली ( कामिनी ) को, विहातुम्-छोड़ने के लिए, समर्थः-समर्थ होगा, अर्थात् कोई नहीं। ___ अर्थः - तुम पहिले कही गई धारा-प्रवाह के गोद में आई हुई निर्मल जल वाली उस नदी को देखोगे, जिस ( नदी ) को समुद्र अपने लहररूपी हाथों से आलिङ्गन कर नदी रूपी कामिनी के अधर का वारम्वार चुम्बन करते हुए पल भर भी ( उससे ) विरत नहीं होता है, (क्योंकि ) जिसने कामिनीसंभोग-सुख का अनुभव कर लिया है ऐसा कौन पुरुष होगा जो उघड़ी जंघाओं वाली स्त्री को छोड़ सकता है ? अर्थात् कोई नहीं छोड़ सकता है। तस्मिन्नुच्चैर्दलितलहरीसोकरासारहारी,
वारांराशेस्तटजविकसत्केतकामोदरम्यः । खेदं मार्गक्रमणजनितं ते हरिष्यत्यजत्रं,
शीतो वायुः परिणमयिता काननोदुम्बराणाम् ॥ ४६॥ मन्वयः - तस्मिन्, तटजविकसत्केतकामोदरम्यः, दलितलहरीसीकरासारहारी; काननोदुम्बराणाम्, परिणमयिता, उच्चः वारांराशे; शीतो वायुः,
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