________________
"७६ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन
गुफाओं में प्राप्त हुई हैं। एलोरा में सम्भवनाथ की कोई मूर्ति नहीं मिली है। (४) अभिनन्दन :
सम्भवनाथ के बाद चौथे तीर्थंकर अभिनन्दन हुए जिनका जन्म अयोध्या नगरी के इक्ष्वाकुवंशीय काश्यपगोत्री राजा स्वयंवरम के यहाँ हुआ था। इनकी माता का नाम सिद्धार्था था। अन्य तीर्थंकरों के समान इनके भी जन्म के छह माह पूर्व से देवों द्वारा रत्नवृष्टि की गयी और माता द्वारा सोलह शुभ स्वप्नों तथा मुख में प्रवेश करता हुआ हाथी देखा गया । माघ शुक्ल द्वादशी के दिन माता सिद्धार्था ने पुत्र को जन्म दिया। जन्म के बाद अन्य देवों के साथ इन्द्र ने उन्हें सुमेरु पर्वत पर ले जाकर क्षीरसागर के जल से उनका अभिषेक किया तथा अभिनन्दन नाम रखा ।१४० श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार जब से अभिनन्दन माता के गर्भ में आये सर्वत्र प्रसन्नता छा गई अतः माता-पिता व परिजनों ने मिलकर इनका नाम अभिनन्दन रखा ।१४१ ___इनकी आयु पचास लाख पूर्व थी। पिता द्वारा प्राप्त राज्य का उपभोग करते हुए जब उनकी आयु के साढ़े छत्तीस लाख पूर्व बीत गये तो एक दिन उन्होंने आकाश में मेघों द्वारा निर्मित एक हल के आकार को बनते और थोड़ी ही देर में विनष्ट होते देखा जिससे उन्हें इस नश्वर शरीर व संसार के प्रति विरक्ति हो गयी और तभी लौकान्तिक देवों ने आकर उनकी पूजा व निष्क्रमण कल्याणक किया । तदनन्तर उन्होंने अग्र उद्यान में आकर एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। उसी समय उन्हें मनःपर्ययज्ञान उत्पन्न हो गया ।।
दूसरे दिन भोजन ( प्रथम पारणा ) प्राप्त करने के लिये इन्होंने साकेत नगरी में प्रवेश किया और वहाँ के राजा इन्द्रदत्त द्वारा आहार प्राप्त किया। छद्मस्थ अवस्था में मौन पूर्वक अठारह वर्ष बीत जाने के बाद पौष शुक्ल चतुर्दशी के दिन सातवें पुनर्वसु नक्षत्र में इन्हें असन वृक्ष के नीचे केवलज्ञान प्राप्त हुआ। देवों ने उनकी ज्ञान-कल्याणक पूजा की । अनेक वर्षों तक पृथ्वी पर धर्म का उपदेश देने के बाद सम्मेदपर्वत पर वैशाख शुक्ल षष्ठी के दिन अभिनन्दन ने निर्वाण प्राप्त किया । १४२ उसी समय इन्द्र ने आकर उनकी पूजा व स्तुति की।
जैन कला में अभिनन्दन की स्वतन्त्र मूर्तियाँ बहुत कम उत्कीर्ण हुईं। इनका लांछन कपि बताया गया है और यक्ष-यक्षी यक्षेश्वर ( या
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org