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जैन देवकुल : ४७
के सन्दर्भ कालान्तर में उनके स्वतंत्र शिल्पांकन और मूर्तिपूजन की दृष्टि महत्वपूर्ण है । १५ जैन शिल्प व चित्रों में जिनों की माताओं के चित्रण का प्राचीन उदाहरण ओसियाँ ( १०१८ ई० ) से प्राप्त होता है । इसके अन्य उद्राहरण पाटण, आबू, गिरनार, कुंभारिया ( महावीर मन्दिर), खजुराहो एवं देवगढ़ से मिले हैं (चित्र २३ ) । १३६ इसी प्रकार २४ जिनों के माता-पिता के सामूहिक अंकन के प्रारम्भिक उदाहरण ( ११वीं शती ई० ) कुंभारिया के शांतिनाथ एवं महावीर मन्दिरों के वितानों पर देखे जा सकते हैं । इनमें आकृतियों के नीचे उनके नाम भी अभिलिखित हैं ।
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दिवपाल :
दिशाओं के स्वामी दिक्पालों या लोकपालों का पूजन वास्तुदेवताओं के रूप में भी लोकप्रिय था । १३८ आदिपुराण में चार दिशाओं के चार लोकपालों (सोम, यम, वरुण, कुबेर ) एवं उत्तरपुराण में अष्ट-दिक्पालों के नामोल्लेख मिलते हैं । 13 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में भी इन्द्र द्वारा चार लोकपालों – कुबेर, यम, अग्नि तथा ईशान की नियुक्ति का उल्लेख है जिनके वाहन, क्रमशः नर, महिष, मेष व वृषभ है । १४० दिक्पालों के प्रतिमानिरूपण से सम्बन्धित प्रारम्भिक उल्लेख निर्वाणकलिका एवं प्रतिष्ठासारसंग्रह में हैं पर जैन मन्दिरों पर इनका उत्कीर्णन ल० नवीं शती ई० में प्रारम्भ हुआ, जिसका उदाहरण ओसियां ( राजस्थान ) के महावीर मन्दिर पर है । १४१ जैन ग्रन्थों में दस दिक्पालों के उल्लेख हैं
इन्द्र (पूर्व), अग्नि ( दक्षिण - पूर्व ), यम (दक्षिण), निर्मृति ( दक्षिणपश्चिम ), वरुण (पश्चिम), वायु ( पश्चिम उत्तर ), कुबेर ( उत्तर ), ईशान (उत्तर-पूर्व), ब्रह्माण्ड ( आकाश ) एवं नागदेव ( या धरणेन्द्रपाताल ) हैं । इनकी लाक्षणिक विशेषताएँ काफी कुछ ब्राह्मण परम्परा के दिक्पालों से प्रभावित हैं । १४२ जैन शिल्प में अष्टदिक्पालों का ही उत्कीर्णन लोकप्रिय था । १४३
नवग्रह :
जैन देवकुल में नवग्रहों के स्वरूप का विकास प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों की सूर्य, चन्द्र, ग्रह आदि ज्योतिष्क देवों की धारणा से हुआ । १४४ उत्तरपुराण में सूर्य पूजन और सूर्य मन्दिर निर्माण का उल्लेख है ।' जैन शिल्प में विशेष रूप से दिगम्बर स्थलों पर नवग्रहों (सूर्य, चन्द्र, - मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु व केतु) का उकेरन १०वीं शती
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