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२६ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन
हीरालाल जैन के अनुसार धार्मिक लोकमान्यताओं की भी जैनधर्म में उपेक्षा नहीं की गयी और उन्हें सम्मानपूर्वक विधिवत् जैन परम्परा में सम्मिलित कर लिया गया । राम और लक्षण तथा कृष्ण व बलदेव के प्रति जनमानस का पूज्य भाव रहा है तथा उन्हें अवतार पुरुष माना गया । जैनियों ने तीर्थंकरों के साथ-साथ इन्हें भी तिरसठ शलाकापुरुषों में आदरणीय स्थान देकर अपने पुराणों में विस्तार से उनके जीवनचरित्र का वर्णन किया है। इतना ही नहीं, रावण तथा जरासन्ध जैसे चरित्रों को भी जैन पुराणों में प्रतिनारायण जैसा प्रतिष्ठापरक स्थान दिया गया। रावण को दशमुखी राक्षस न मानकर विद्याधर वंशी माना गया तथा उसे राक्षसी वृत्ति से ऊपर उठाया गया है ।९३ (ग) सामाजिक
पूर्व-मध्यकाल में भारतीय समाज जातिप्रथा तथा धार्मिक रीतिरिवाज के बन्धन में जकड़ता जा रहा था।४ मध्यकाल ( ११वीं-१२वीं शती ई० ) तक समाज अनेक जातियों व उपजातियों में विभाजित होने लगा था। समाज में तन्त्र-मन्त्र, टोना-टोटका, शकुन-अपशकुन विचार घर कर गये थे । ब्राह्मण वर्ण में छुआछूत का विचार बढ़ रहा था। इसका प्रभाव इस समय ब्राह्मण वर्ण के साथ-साथ वैश्य व क्षत्रिय वर्णों पर भी पड़ने लगा था। शासन प्रायः अक्षत्रिय वर्ग के लोगों के हाथ में आ रहा था। मौखरी तथा पश्चात्कालीन गुप्त राजा अक्षत्रिय ही थे। इसी प्रकार बंगाल के पाल और सेन क्रमशः शूद्र और ब्राह्मण थे तथा कन्नौज के गुर्जर-प्रतिहार विदेशी मूल के थे (?) जो बाद में क्षत्रिय बनाये गये । ९६ इस प्रकार क्षत्रिय वर्ण में अनेक तत्त्वों का समिश्रण हो रहा था तथा बदलती सामाजिक परिस्थितियों के कारण पश्चिम एवं दक्षिण भारत में जैन धर्मावलम्बियों की संख्या निरन्तर बढ़ रही थी।९७ जैन स्रोतों से यह ज्ञात होता है कि कुछ क्षत्रिय जैन व बौद्ध धर्म के अहिंसा के सिद्धान्त से प्रभावित हो शस्त्र जोविका छोड़कर व्यापार वृत्ति करने लगे थे।८ पूर्व-मध्यकाल का जैनधर्म अधिकांशतः व्यापारिक वर्ग के हाथों मे था। जैनधर्म में जाति व्यवस्था को धर्म की दृष्टि से किंचित् भी महत्त्व नहीं दिया गया था, संभवतः इसी कारण वैश्यों ने काफी संख्या में जैनधर्म को स्वीकार किया था, जिनका मुख्य कार्य व्यापार या व्यवसाय था।९९ इसी कारण जैनधर्म विशेष रूप से दक्षिण व पश्चिम भारत में धार्मिक व्यापारिक वर्ग के संरक्षण में खूब फला
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