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________________ प्रस्तावना : २३ क्रिया-कलापों में जैन आचार्यों को जनता के अतिरिक्त तत्कालीन शासक वर्ग से भी संरक्षण तथा प्रेरणा मिलती रही। दक्षिण भारत के मध्यकालीन राजवंशों जैसे गंग, कदम्ब, चालुक्य (बादामी, अयहोल) राष्ट्रकूट एवं होयसल ( असिकेरी, हलेबिड एवं लक्कुंडी के जैन मन्दिर एवं मूर्तियाँ ) तथा उनके अधीनस्थ सामन्तों, मन्त्रियों और सेनापतियों ने जैनधर्म को केवल आश्रय ही नहीं दिया वरन् वे जैनधर्म के प्रति आदर भाव रखने वाले और उसके अनुयायी भी थे।७१ राष्ट्रकट नरेश अमोघवर्ष जिनसेन का अनन्य भक्त था और उसने जीवन के अन्तिम चरण में सम्भवतः जैनधर्म भी स्वीकार लिया था।७२ आदिपुराण के कर्ता जिनसेन तथा गणितसार-संग्रह के कर्ता महावीराचार्य अमोघवर्ष के दरबार में थे।७३ शासक और विजेता होने के साथ ही अमोघवर्ष साहित्य तथा कला का महान संरक्षक भी था। वह स्वयं भी कन्नड़ की सबसे प्राचीन कृति कविराजमार्ग तथा प्रश्नोत्तरमालिका का लेखक था।७४ उसका जीवन हिन्दु एवं जैनधर्म के गुणों का अद्भुत समन्वय था।७५ उसने जीवन में स्याद्वाद का अनुसरण किया और साथ ही हिन्दू देवीदेवताओं को भी पूरा सम्मान दिया। अमोघवर्ष द्वारा जैन दीक्षा ग्रहण करने का सन्दर्भ शकसंवत् ७८२ ( ८६० ई० ) के ताम्रपत्र में मिलता है । अमोघवर्ष ने स्वयं जैनाचार्य देवेन्द्र को दान दिया था। अमोघवर्षे के पुत्र कृष्ण द्वितीय के महासामंत पृथ्वीराय के शकसंवत् ७९७ ( ८७५ ई० ) के लेख में उसके द्वारा किसी जैन मन्दिर को भूमिदान का उल्लेख मिलता है ।७७ उसके अतिरिक्त राजदरबारी, सामंत तथा व्यापारी वर्ग भी जैनधर्म को मानने वाले तथा उसके संरक्षण प्रदान करने वाले थे।७८ ... अमोघवर्ष जैन थे अथवा जैनधर्म के प्रति केवल उनकी सहानुभूति मात्र थी, इसके सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। नाथूराम प्रेमी ने उनके जैन धर्मानुयायी होने के सम्बन्ध में कुछ साक्ष्य प्रस्तुत किये हैं । उनका कहना है कि अमोघवर्ष ने अपने प्रश्नोत्तररत्नमाला के मंगलाचरण में वर्तमान तीर्थंकर को नमस्कार किया है तथा उसमें अनेक बातें जैन धर्मानुमोदित कही गयीं है जिससे वे जैनधर्म के अनुयायी जान पड़ते हैं। अमोघवर्ष के ही समय में महावीराचार्य ने जिस गणितसारसंग्रह नामक ग्रन्थ की रचना की थी, उसकी उल्थानिका में उन्होंने अमोघवर्ष को स्याद्वादन्यवादी कहा है जिससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अमोघवर्ष जैन हो गये थे। कुछ विद्वानों का यह भी कहना है कि अमोघवर्ष के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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