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________________ २५६ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन ( या नन्दन ), राम ( या पद्म ) एवं पद्म ( या बलराम ); ९ नारायणों में- त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयम्भू, पुरुषोत्तम, पुरुष सिंह, पुण्डरीक ( या पुरुषपुण्डरीक ), दत्त, लक्ष्मण व कृष्ण तथा ९ प्रतिनारायणों में— अश्वग्रीव, तारक, मधु ( या मेरक), मधुसूदन ( निशुम्भ ), मधुक्रीड ( या मधुकैटभ), निशुम्भ ( या बलि), बलीन्द्र ( या प्रहलाद ), रावण एवं जरासन्ध के नामोल्लेख मिलते हैं । पूर्णविकसित जैन देवकुल में ६२ शलाकापुरुषों के अतिरिक्त २४ तीर्थंकरों के यक्ष-यक्षी युगल, विद्यादेवियाँ, अष्टदिक्पाल, नवग्रह, लक्ष्मी, सरस्वती, नैगमेषी, इन्द्र, ब्रह्मशान्ति एवं कपर्दी यक्ष और गणेश जैसे देवी-देवता सम्मिलित थे । ल० १२वीं शती ई० तक जैन देवकुल के देवताओं के विस्तृत लक्षण भी नियत किये जा चुके थे और तद्नुरूप देवगढ़, खजुराहो, मथुरा, बिलहरी, खण्ड गिरि, उड़ीसा, राजगिर, एलोरा, हुम्मच, हलेबिड, अर्सिकेरी, श्रवणबेलगोल जैसे दिगम्बर एवं ओसियां, अकोटा, देलवाड़ा, कुम्भारिया, तारंगा जैसे श्वेताम्बर स्थलों पर विभिन्न देव स्वरूपों का निरूपण हुआ । साहित्य और शिल्प के आधार पर २४ तीर्थंकरों के बाद यक्षी, विद्यादेवी, लक्ष्मी, सरस्वती आदि के रूप में देवियों को ही सर्वाधिक प्रतिष्ठा मिलो जो शक्ति और तांत्रिक पूजन से प्रभावित प्रतीत होता है । जैन देवकुल के अध्ययन की दृष्टि से महापुराण की सामग्री की कुछ निजी विशेषताएँ रही हैं जो किन्हीं अर्थों में नवीं - १०वीं शती ई० में जैन देवकुल के विकास के अनुरूप हैं । दिगम्बर परम्परा में २४ तीर्थं - करों के यक्ष-यक्षी युगलों का स्वतन्त्र निरूपण १२वीं शती ई० में हुआ जो प्रतिष्ठा सारसंग्रह में वर्णित है । सम्भवतः इसी कारण जैन महापुराण में २४ यक्ष-यक्षी युगलों का अनुल्लेख है । ६३ शलाकापुरुषों में २४ तीर्थंकरों - राम, बलराम, कृष्ण, भरत, बाहुबली आदि के सन्दर्भ एलोरा, देवगढ़, खजुराहो तथा अन्य दिगम्बर स्थलों पर उनकी मूर्त अभिव्यक्ति के अध्ययन की दृष्टि से विशेष महत्वपूर्ण हैं । इनके अतिरिक्त महापुराण में विभिन्न प्रसंगों में इन्द्र, शिव, विष्णु, ब्रह्मा, वामनदेव, लक्ष्मी, सरस्वती, सूर्य, गंगा व सिन्धु देवी, कुबेर, दिक्कुमारी, भवनवासी, कल्पवासी, ज्योतिष्क तथा व्यन्तर देवों और लौकान्तिक देवों एवं लोकपूजन से सम्बन्धित श्री, ही, धृति, बुद्धि और कीर्ति आदि देवियों के उल्लेख भी महत्त्वपूर्ण हैं जो जैन देवकुल को व्यापक और समन्वयात्मक अवधारणा को व्यक्त करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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