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सांस्कृतिक जीवन : २१७ तथा मोहनजोदड़ो से प्राप्त विभिन्न हार व हंसली आदि से सिद्ध होती है ।" हार गले का प्रमुख आभूषण था जिसके विविध प्रकार, एकावली, हारशेखर, हारयष्टि, अढहार ( अर्धहार ), लम्बहार, निद्यौतहार तथा रत्नावली आदि थे।४५ जैन पुराणों के अनुसार गले के आभूषणों का निर्माण स्वर्ण, मुक्ता तथा रत्नों से होता था। मुक्ता, मणि तथा रत्नों से युक्त हार को अधिकांशतः देव तथा राजा ही धारण करते थे। मोतियों का हार नगर की स्त्रियाँ तथा स्वर्णनिर्मित माला ग्रामीण स्त्रियाँ पहनती थीं।४६ जैन पुराणों में वर्णित विभिन्न कण्ठाभूषण निम्नवत् हैं
(क ) यष्टि-लड़ियों के समूह को यष्टि कहा गया है । आदिपुराण में शीर्षक, उपशीर्षक, अवघाटक, प्रकाण्डक तथा तरल-प्रबन्ध नामों से यष्टि के पाँच भेद बताये गये हैं।४७
(१) शीर्षक-शीर्षक के मध्य में एक स्थूल मोती होतो थी।४८
(२) उपशीर्षक-इसके बीच में क्रमशः बढ़ते हुए तीन मोती होते थे।४९
( ३ ) अवघाटक-अवघाटक के मध्य में एक मणि और उसके दोनों ओर क्रमशः छोटे होते हुए छोटे-छोटे मोती लगे होते थे ।५०
(४) प्रकाण्डक-इसके बीच-बीच में क्रम से बढ़ते हुए पाँच मोती लगे होते थे।
(५) तरल प्रतिबन्ध-तरल प्रतिबन्ध यष्टि में सब स्थानों पर एक समान मोती लगे होते थे ।५१
आदिपुराण में एकावली, रत्नावली तथा अपवर्तिका नामों से मणियुक्त यष्टियों के अन्य तीन भेदों का भी उल्लेख मिलता है ।५२
इसके अतिरिक्त उपर्युक्त पाँच प्रकार के यष्टियों के मणिमध्या तथा शुद्धा भेद से दो और विभेद मिलते हैं
मणिमध्या यष्टि-मणिमध्या यष्टि के मध्य में एक मणि लगा होता था। मणिमध्या यष्टि को सूत्र तथा एकावली भी कहा गया है। मणिमध्या यष्टि के सुवर्ण व मणियों से चित्र-विचित्र होने पर उसे रत्नावली नाम दिया गया। इसके अतिरिक्त जिस मणिमध्या यष्टि को किसी निश्चित प्रमाण वाले सुवर्ण मणि, माणिक्य और मोतियों के मध्य अन्तर देकर गूंथा जाता था उसे अपवर्तिका कहा गया है।५3 इस प्रकार के
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