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________________ २०४ : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन ७. वीषिका : यह एक लम्बी नहर होती थी जो राजमहलों से होती हुई गृहोद्यान तक जाती थी। इसके मध्य में क्रीड़ा-वापियाँ निर्मित की जाती थीं। उत्तम उद्यानों के मध्य स्थित, फूलों से सुशोभित, उत्तम सीढ़ियों से युक्त एवं क्रीड़ा के योग्य दीपिकाओं का उल्लेख पद्मपुराण में मिलता है ।१०७ ८.धारागृह : राजप्रासादों में धारागृह होते थे जिसमें कई स्थानों पर फव्वारें निर्मित होते थे । १०८ भवन के प्रकार और स्वरूप : - जैन पुराणों में गृह या गेह,१०९ प्रासाद, आगार, मन्दिर, अालय, सद्म, वेश्म, निलय, चैत्य, कूट, विमान, जिनेन्द्रालय, शाला, पुष्करावर्त, गृह-कूटक, वैजयन्त-भवन, गिरिकूटक और सर्वतोभद्र नामक भवनों के उल्लेख मिलते हैं । ११० निर्माण व उपयोगिता की दृष्टि से पृथक होने के कारण ये अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। ___ आवास गृहों का निर्धारण व निर्माण सतर्कता पूर्वक स्थापत्य के सिद्धांतों और नैमिक्तिक विधानों के अनुरुप ही करने का उल्लेख है : उदा. हरणार्थ-गृह का अग्रभाग पृष्ठभाग से संकरा और नीचा होना उत्तम होता है । मुख्यद्वार पूर्व में, पाकशाला ( दक्षिण-पश्चिम कोण ) में, शयनगार दक्षिण में, शौचालय ( नीहार स्थान) दक्षिण-पूर्व कोण में, कोषागार उत्तर में और धर्म स्थान उत्तर-पूर्व से होना चाहिये । आवासगृह का विस्तार गृहस्वामी की प्रतिष्ठा के अनुकूल होना चाहिये ।" १. गृह या गेह : गृह या गेह का एक ही अर्थ है। पद्मपुराण में गृह और वेश्म का प्रयोग प्रासाद के अर्थ में हुआ है । ११२ आदिपुराण के अनुसार पक्के मकानों के शिखरों पर पताकाएँ फहराई जाती थीं तथा प्रत्येक घर में कमलों से युक्त वापिकाएँ होती थीं। ११३ गृह के वातायन सड़क की ओर खुलते थे और गृह की छत पर आलिन्द ( झरोखे ) होते थे । गृह के द्वार पर मकर, देव, मुनि, पशु-पक्षी, पुष्पलता, पल्लव, मत्स्य आदि की आकृतियाँ बनायी जाती थीं।११४ . ____२. सदम : पद्मपुराण में सभा, वापिका, विमान तथा बाग-बगीचों से युक्त भवन को सद्म संज्ञा से सम्बोधित किया गया है। इसमें राजभवन को राजसद्म कहा गया ।१५ ३. वेश्म : वेश्म शब्द भी गृह का ही बोधक है। ४. आगार : इसका प्रयोग भी गृह के ही अर्थ में हुआ है । पद्मपुराण में प्रसवागार का उल्लेख है । ११६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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