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अन्य देवी-देवता : २०३
पर ध्वजाएँ फहराती थीं । १२ राजमहल श्रेष्ठ वृक्षों से युक्त उद्यानों में स्थित होते थे । 3 राजभवन की भूमि को चाँदी तथा सुवर्ण के लेप से सुन्दर बनाया जाता था । १४ राजप्रासादों के दरवाजे बड़े-बड़े रत्नों से जटित तथा विशाल आकार के होते थे । प्रासाद से संलग्न प्रमोदवन " का निर्माण होता था जिसमें राजा अवकाश काल में अपने प्रियजनों के साथ मनोविनोद किया करता था ।
भवनों के प्रमुख अंग :
जैन पुराणों में वर्णित भवनों के उल्लेखों के आधार पर इनके निम्नलिखित प्रमुख अंग माने जा सकते हैं
१. द्वार : प्रासाद के द्वार ऊँचे प्राकार तथा रंग-बिरंगे तोरणों से सुशोभित होते थे । इन पर देदीप्यमान बेलबूटे उकेरे जाते थे ।९७ ये द्वार विशाल होते थे । इनके निर्माणार्थं काष्ठ, रत्न, मणि एवं सुवर्ण का प्रयोग किया जाता था । " द्वार अभ्यान्तर एवं बाह्य दो प्रकार के होते थे । ९९
२. स्तम्भ : स्तम्भ भवनों के एक प्रमुख अंग थे जिनका निर्माण इंट व पत्थर के अतिरिक्त सुवर्ण तथा रत्नों से भी किया जाता था । १००
३. आस्थान - मण्डप : जैन पुराणों में आस्थान - मण्डप शब्द का प्रयोग मिलता है । १०१ हर्षचरित में इसको आस्थान, राजसभा, सभा तथा सभामण्डल की संज्ञा दी गयी है । राजा 'आस्थान - मण्डप' में बैठकर विचारविमर्श करते थे । १०२
४. अन्य मण्डप : जैन पुराणों में लता - मण्डप, आस्थायिका, आहारमण्डप, कुन्द-मण्डप तथा सन्नाह- मण्डप आदि का उल्लेख आया है । १०३ आहार - मण्डप का प्रयोग भोजन करने व सन्नाह- मण्डप आयुधशाला के रूप में शस्त्रास्त्र व वाद्य यंत्र रखने के लिये प्रयुक्त होता था । १०४
५. सभा : पद्मपुराण में सभा के लिये सद्म शब्द का प्रयोग है । राजसभाओं के चारों ओर विशाल खुला मैदान होता था जहाँ बहुत से लोग बैठते थे । यह मैदान राजमहल से आवृत्त रहता था तथा इसके गवाक्षों से स्त्रियाँ सभा के कार्यकलापों का अवलोकन करती थीं । १०५
६. गवाक्ष : पद्मपुराण में गवाक्ष के लिये वातायन, जालक व मणिजालक शब्द प्रयुक्त हुआ है । गवाक्ष जाल के समान व मणिजटित होता था । १०६
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