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२०० : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन मध्य भाग में नौ-नौ स्तूप होते थे। अत्यन्त ऊँचे पद्मराग मणियों से निर्मित ये स्तूप तीर्थंकरों और सिद्धों की प्रतिमाओं से युक्त तथा छत्र एवं आठ मंगल द्रव्यों और ध्वजाओं से शोभित होते थे। ७३
स्तूप के आगे स्फटिक मणि व नाना प्रकार के रत्नों से निर्मित सात खण्डों वाले चार गोपुरद्वारों से सुशोभित तीसरा कोट होता था। तीनों कोटों के गोपुरद्वारों पर गदा आदि से युक्त व्यन्तर, भवनवासी और कल्पवासी देव द्वारपाल के रूप में उपस्थित होते थे । उस कोट से लेकर पीठ पर्यन्त लम्बी ओर महावीथियों के अन्तराल में सोलह दीवारें होती थों जो समवसरण के बारह सभाओं का विभाजन करती थीं। उन दीवारों के ऊपर रत्नमय स्तम्भों पर आकाश स्फटिक मणि का बना श्रीमण्डप होता था। समवसरण में जिन तीन पीठों का निर्माण होता था उनमें प्रथम पीठ पर चार हजार धर्मचक्र, द्वितीय पर आठ प्रकार की महाध्वजाएँ तथा तृतीय पीठ पर श्रीमण्डप को सुशोभित करने वाला अनेक मंगलद्रव्यों सहित गन्धकूटी होता था जिस पर जिनेन्द्रदेव का सिंहासन होता था ।७५ गन्धकूटी के आसपास बारह श्रीमण्डप होते थे जिसकी लम्बाई-चौड़ाई एक योजन होती थी। ये प्रत्येक दिशा में वीथिपथ को छोड़कर ४-४ भित्तियों के अन्तराल से तीनतीन होते थे और उनकी ऊँचाई तीर्थंकर के शरीर की ऊँचाई से १२ गुनी होती थी। धर्मोपदेश के समय ये कोठे क्रमशः पूर्व से प्रदक्षिणा क्रम से-(१) गणधरों, (२) कल्पवासिनी देवियों, (३) आयिका व श्राविकाओं, ( ४ ) ज्योतिषी देवियों, (५ ) व्यन्तर देवियों, (६ ) भवनवासिनी देवियों, (७) भवनवासी देवों, (८) व्यन्तर देवों, (९) ज्योतिषी देवों, (१०) कल्पवासी देवों व इन्द्रों, (११) चक्रवर्ती आदि मनुष्यों एवं ( १२ ) गज सिंह आदि समस्त तीर्यच जीवों के बैठने के लिए नियत होते थे। ___ श्रीमण्डप के बीचोबीच तीन पीठिकाओं के ऊपर गंधकुटी की रचना होती थी जिसका आकार चौकोर होता था। अन्तिम तीर्थंकर महावीर के गंधकूटी की ऊँचाई ७५ धनुष अर्थात लगभग ५०० फुट बतलाई गयी है।७७ गन्धकूटी के मध्य भाग में उत्तम सिंहासन होता था जिसपर विराजमान होकर तीर्थंकर अपना पहला धर्मोपदेश देते थे। गन्धकुटी चारों ओर लटकते हुए बड़े-बड़े मोतियों की झालरों एवं सुवर्णमयी मोटी व लम्बी जाली से सुशोभित होती थी। ऋषभदेव के गन्धकुटी को ६००
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