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________________ १६० : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन भीमावर्तनी, प्रबलप्रवर्तनी, लघुकारिणी, भूमिविदारणी, अग्निवेगा, बहुलेपिनी, शत्रुनिवारिणी, अक्षरसंकुला, दुष्टगलशृंखला, मायाबह्नी, पर्णलघ्वी, हिमवेताली, शिखीवेताली, चलचाण्डाली एवं भ्रमरश्यामांगी नामक विद्याओं के भी उल्लेख मिलते है। १६ महाविद्याओं की सूची ल० ९वीं शती ई० के अन्त तक निश्चित हुई । इनमें अधिकांशतः पूर्ववर्ती ग्रन्थों में उल्लखित विद्याएँ ही सम्मिलित हैं। तिजयपहुत्त ( मानवदेवसूरिकृत-९वीं शती ई०), संहितासार (इन्द्रनन्दिकृत-९३९ ई० ) एवं स्तुतिचतुर्विंशतिका ( या शोभनस्तुतिशोभनमनिकृत-ल० ९७३ ई० ) में १६ महाविद्याओं की प्रारम्भिक सूची वर्णित है जिसे बाद में उसी रूप में स्वीकार कर लिया गया है । २ १६ महाविद्याओं की अन्तिम सूची में निम्नलिखित नाम हैं-रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रशृंखला, वज्रांकुशा, चक्रेश्वरी ( या अप्रतिचक्रा, जाम्बुनदादिगम्बर), नरदत्ता ( या पुरुषदत्ता), काली ( या कालिका ), महाकाली, गौरी, गान्धारी, सस्त्रि-महाज्वाला ( या ज्वाला, ज्वालामालिनी-दिगम्बर), मानवी, वैरोट्या ( वैरोटी-दिगम्बर), अच्छुप्ता ( अच्युता-दिगम्बर ), मानसी एवं महामानसी । 3 ज्ञातव्य है कि प्रस्तुत सूची की रोहिणी, प्रज्ञप्ति, गरुडवाहना ( अप्रतिचक्रा), सिंहवाहिनी ( महामानसी), महाज्वाला, गौरी, मनोवेगा, महाविद्याओं के नामोल्लेख उत्तरपुराण (गुणभद्रकृत) में मिलते हैं । किन्तु उत्तरपुराण में इन विद्याओं के लक्षणों का कोई उल्लेख नहीं हुआ है। केवल गरुडवाहना और सिंहवाहिनी के रूप में अप्रतिचक्रा एवं महामानसी के वाहनों का ही संकेत दिया गया है। महाविद्याओं के लाक्षणिक स्वरूपों का निरूपण सर्वप्रथम बप्पभट्टि की चतुर्विंशतिका एवं शोभनमुनि की स्तुतिचतुर्विशतिका में किया गया है। __ जैन शिल्प में ल० ८वीं-९वीं शती ई० से महाविद्याओं का रूपायन मिलने लगता है। महाविद्याओं के स्वतन्त्र उत्कीर्णन का प्राचीनतम उदाहरण ओसियाँ (जोधपुर, राजस्थान) के महावीर मन्दिर (ल० ८वीं-९वीं शती ई० ) से प्राप्त होता है। ९वीं शती ई० के बाद गुजरात एवं राजस्थान के श्वेताम्बर जैन मन्दिरों पर महाविद्याओं का नियमित चित्रण मिलता है। गुजरात व राजस्थान के बाहर इनका उकेरन लोकप्रिय नहीं था। ४ १६ महाविद्याओं के सामूहिक चित्रण के उदाहरण कुम्भारिया (बनासकांठा, गुजरात) के शान्तिनाथ मन्दिर (११वीं शती ई०), विमलवसही (दो समूह : रंगमण्डप एवं देवकुलिका ४१, १२वी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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