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________________ १५८: जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण आदि द्वारा अनेक प्रकार की विद्याओं को सिद्ध करने की भी चर्चा मिलती हैं। एक अन्य स्थल पर रावण द्वारा शान्तिनाथ के मन्दिर में बहुरूपा (या बहुरूपिणी ) महाविद्या को सिद्ध करने एवं इस विद्या द्वारा रावण के त्रिलोक साध्य होने का उल्लेख हुआ है।६७ पउमचरिय में एक स्थल पर रावण द्वारा सिद्ध अनेक विद्याओं में से ५५ विद्याओं की सूची भी दी गयी है। पउमचरिय में उल्लिखित विद्यादेवियों का कालान्तर में ल० ८वीं९वीं शती ई० में १६ महाविद्याओं की सूची के निर्धारण की दृष्टि से विशेष महत्त्व रहा है। उल्लेखनीय है कि जैनधर्म में विद्यादेवियों की कल्पना यक्ष-यक्षी युगलों (या शासन देवताओं) से प्राचीन है। इसी कारण दिगम्बर परम्परा के २४ यक्षियों में अधिकांश जैसे-रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वज्रशृंखला, पुरुषदत्ता, काली, ज्वालामालिनी, महाकाली, वैरोट्या, मानसी एवं महामानसी यक्षियों के नाम पूर्ववर्ती महाविद्याओं के नामों से प्रभावित हैं। इसके अतिरिक्त पउमचरिय की विद्यादेवियों की सूची में प्रज्ञप्ति, गरुड, सिंहवाहिनी, दहनीय (या अग्निस्तंभनी), शंकरी, योगेश्वरी, भुजंगिनी, सर्वरोहिणी, वज्रोदयी जैसे नाम ऐसे हैं जिन्हें कालान्तर में १६ महाविद्याओं की सूची में या तो उसी रूप में या थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ स्वीकार किया गया ।७० । _ विद्यादेवियों से सम्बन्धित अनेक उल्लेख वसुदेवहिण्डी (ल० छठी शती ई०), आवयकचूणि ( ल० ६७७ ई०), आवश्यकनियुक्ति (८वीं शती ई० ), हरिवंशपुराण, चउपन्नमहापुरिसचरियम् ( ८६८ ई०) एवं त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र में मिलते हैं। हरिवंशपुराण १ एवं त्रिषष्टिशलाकापूरुषचरित्र७२ में उल्लेख है कि धरण ने नमि और विनमि को विद्याधरों पर स्वामित्व और ४८ हजार विद्याओं का वरदान दिया। हरिवंशपुराण में प्रज्ञप्ति, रोहिणी, अंगारिणी, महागौरी, गौरी, सर्वविद्याप्रकर्षिणी, महाश्वेता, मायूरी, हारी, निर्वज्ञशाड्वला, तिरस्कारिणी, छायासंक्रामिणी, कुष्माण्ड, गणमाता, सर्वविद्याविराजिता, आर्यकूष्माण्ड देवी, अच्युता, आर्यवती, गान्धारी, निर्वृत्ति, दण्डाध्यक्षगण, दण्ड-भूतसहस्रक, भद्रकाली, महाकाली, काली एवं कालमुखी आदि विद्याओं के नामोल्लेख हुए हैं।७३ वसुदेवहिण्डी में विद्याओं को गन्धर्वो एवं पन्नगों से सम्बद्ध बताया गया है और महारोहिणी, प्रज्ञप्ति, गौरी, महाज्वाला, बहुरूपा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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