SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शलाका पुरुष : १३९ व्यन्तर देवताओं द्वारा विविध रूप धारण कर कृष्ण को मारने का प्रयास करने से सम्बन्धित उल्लेख मिलते हैं, उदाहरणार्थ किसी देवी द्वारा पूतना के रूप में कृष्ण को विषपूर्ण स्तनपान कराने का प्रयास, किसी का अर्जुन वृक्ष, किसी का ताड़ वृक्ष, किसी का गर्दभी अथवा अश्व रूप में कृष्ण को मारने आना इत्यादि । किन्तु अपने प्रयासों में पूर्णतः असफल होने पर वे सभी कंस के सामने अपनी असमर्थता प्रकट कर विलीन हो गये ।९७ उपर्युक्त सन्दर्भ स्पष्टतः महाभारत, हरिवंशपुराण एवं भागवतपुराण में वर्णित कृष्ण जन्म की कथा से प्रभावित हैं। किसी दिन मथुरापुरी के जैन मन्दिर के पूर्व में स्थित दिक्पाल मंदिर में कृष्ण के प्रताप से नागशय्या, धनुष और शंख ये तीन रत्न प्रकट हुए। निमित्तज्ञानियों से यह ज्ञात होने पर कि जो इसे सिद्ध कर लेगा वह चक्ररत्न से सुरक्षित राज्य प्राप्त करेगा, कंस ने स्वयं उसे सिद्ध करना चाहा। किन्तु इस कार्य में असमर्थ होने पर उसने यह घोषणा करवाई कि जो भी नागशय्या पर चढ़कर एक हाथ से शंख बजाएगा और दूसरे से धनुष को चढ़ा देगा, उसे वह अपनी पूत्री देगा। यह घोषणा सुनकर अनेक राजाओं के साथ-साथ स्वयं कृष्ण भी मथुरा पहुँचे और उन तीनों कार्यों को करने के बाद वापस व्रज आ गये । जब कंस को यह पता चला कि इन तीनों कार्यों को करने वाले स्वयं कृष्ण ही हैं तो उसने शत्रु को शौर्य परीक्षा के उद्देश्य से नन्दगोप के पास यह सूचना भेजी कि उसे वह सहस्रदल पद्म चाहिये जिसकी रक्षा स्वयं नागराज करते हैं। शोकाकुल पिता नन्दगोप की समस्या जानकर कृष्ण महासर्पो से युक्त सरोवर में प्रवेश कर, वह पद्म सहज ही ले आये। प्रस्तुत प्रसंग किंचित् परिवर्तित रूप में कालिय नाग के दमन की कथा से संबंधित है। बाद में कंस ने नन्दगोप को अपने मल्लों के साथ मल्लयुद्ध देखने के लिए मथुरा आमन्त्रित किया। जब वे मथुरा में प्रविष्ट हए तो कंस ने उन पर एक मत्त हाथी छोड़ा। कृष्ण ने गज के एक दाँत को उखाड़ कर उसी से उसको इतना पीटा कि वह भयभीत हो भाग गया। इसके पश्चात् कंस की सभा में सर्वप्रथम कृष्ण ने चाणूर नामक कंस के प्रमुख मल्ल का और इसके बाद कंस का वध किया ।१९ । इन सारी घटनाओं की सूचना जब मगध के राजा जरासन्ध ( नौवाँ प्रतिनारायण ) को प्राप्त हुई तो उसने यादवों से प्रतिशोध लेने का निश्चय किया। इस कार्य के लिए जब उसने अपने पुत्र कालयवन, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy