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________________ १३० : जैन महापुराण : कलापरक अध्ययन दाहिनी भुजा पर स्थिर हो गया। उसी चक्र से द्विपृष्ठ ने तारक का वध किया और सात उत्तम रत्नों और तीन खण्ड पृथ्वी का स्वामी बन गया। मृत्यु के बाद द्विपृष्ठ सातवें नरक गया और बलभद्र ने 'अचल' संयम धारण कर मोक्ष पद प्राप्त किया।५९ ३. धर्म, स्वयम्भू और मधु : उत्तरपुराण में 'धर्म' का तीसरे बलभद्र 'स्वयम्भू' का तीसरे नारायण और 'मध' का तीसरे प्रतिनारायण के रूप में उल्लेख है। 'धर्म' बलभद्र और 'स्वयम्भू' नारायण का जन्म भरतक्षेत्र की द्वारावती नामक नगरी के राजा भद्र की रानी सुभद्रा व पृथिवी से हुआ था। इन्हीं के समय इनके शत्रु मधु का जन्म रत्नपुर नामक नगर में हुआ। पिछले जन्म में इसने सुकेतु नामक राजा का, जो बाद में स्वयम्भू नारायण हुए, राज्य द्यूत में जीत लिया था। अतः पूर्व वैर के कारण स्वयम्भू मधु का नाम सुनते ही क्रोधित हो जाता था। एक दिन किसी राजा ने जब मधु के लिये भेंट भेजी तो स्वयम्भू ने उनके दूतों को मारकर उसे छीन लिया। परिणामस्वरूप मधु के साथ धर्म और स्वयम्भू का युद्ध हुआ । अन्त में कुपित होकर जब मधु ने स्वयम्भू पर अपना चक्र फेंका तो वह उनकी प्रदक्षिणा कर उनकी दाहिनी भुजा के अग्न भाग पर ठहर गया। क्रुद्ध हो स्वयम्भू ने उसी चक्र से मधु का वध कर दिया। भारी पाप का संयम करने के कारण अन्त में मधु सातवें नरक में और नारायण स्वयम्भू भी पूर्व बैर के संस्कार के फलस्वरूप पाप का संचय करने के कारण मृत्यु के उपरान्त सातवें नरक में प्रविष्ट हुए। बलभद्र धर्म ने भाई के वियोग से शोकसंतप्त हो विमलनाथ के पास जाकर संयम धारण कर लिया और अन्त में मोक्ष पद प्राप्त किया।६० ४. सुप्रभ, पुरुषोत्तम एवं मधुसूदन : 'सुप्रभ', 'पुरुषोत्तम' व 'मधुसूदन' जैन परम्परा के चौथे बलभद्र, नारायण व प्रतिनारायण हैं जो चौदहवें तीर्थंकर अनन्तनाथ के समकालीन थे। बलभद्र सुप्रभ व नारायण पुरुषोत्तम का जन्म भरतक्षेत्र की द्वारवती नामक नगरी के राजा सोमप्रभ के यहाँ हुआ था। इनको माता का नाम क्रमशः जयवन्ती व सीता था। सुप्रभ शुक्ल और पुरुषोत्तम कृष्ण कान्ति के धारक थे ।" मधुसूदन काशी के वाराणसी नगरी का राजा था। उसका बल व पराक्रम प्रसिद्ध था। एक बार नारद ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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