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________________ तीर्थंकर ( या जिन) : ९५ जब इसके बारे में सूचना मिली तो उन्होंने नेमिनाथ का विवाह कर देना उचित समझा क्योंकि बहुत समय बाद नेमिनाथ का चित्त राग से युक्त हुआ था ।२१६ कृष्ण ने नेमिनाथ के विवाह के लिये राजा उग्रसेन से उनकी पुत्री राजीमती की याचना की और विवाहोत्सव आरम्भ किया । किन्तु दुसरे दिन कृष्ण के हृदय में यह लोभ उत्पन्न होने पर कि कहीं नेमिनाथ सारा राज्य न ले लें, उन्होंने नेमिनाथ के मन में विरक्ति उत्पन्न करने के उद्देश्य से आखेटकों द्वारा बहुत से मृगों को पकड़वा कर उन्हें एक स्थान पर बन्द करवा दिया और रक्षकों को यह आदेश दिया कि नेमिनाथ द्वारा मृगों के बारे में पूछे जाने पर उन्हें यह बताया जाय कि इन मृगों को उनके विवाहोत्सव के अवसर पर दिये जाने वाले भोज के लिये आहार स्वरूप लाया गया है । २१७ दिशाओं का अवलोकन करने के लिये निकले नेमिनाथ ने जब करुण स्वर में आर्तनाद करते दौड़ते, प्यासे मृगों को देखा और यह भी जान लिया कि कृष्ण ने राज्य ग्रहण की आशंका से उनके साथ ऐसा कपट किया है तो उसी समय उन्हें इस संसार से विरक्ति हो गयी । तभी लौकान्तिक देवों ने आकर उन्हें पूर्वभव का स्मरण करवाया तथा इन्द्रों ने दीक्षा कल्याणक किया । तत्पश्चात् नेमिनाथ ने सहस्राम्रवन में जाकर एक हजार राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया और पारणा के लिये द्वारावती नगरी गये जहाँ वरदत्त से प्रासुक आहार प्राप्त किया । तपस्या करते हुए छद्मस्थ अवस्था के जब उनके छप्पन दिन व्यतीत हो गये तब एक दिन रैवतक ( गिरनार ) पर्वत पर एक बाँस के वृक्ष के नीचे उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ । अनेक देशों में विहार करने के बाद वे द्वारावती नगरी गये और वहाँ पर कृष्ण व बलदेव को धर्म के स्वरूप का उपदेश दिया । इस प्रकार ६९९ वर्ष ९ माह तक और चार दिनों तक विहार करने के बाद ५३३ मुनियों के साथ एक माह तक योग निरोधक कर नेमिनाथ ने मोक्ष प्राप्त किया | २१८ नेमिनाथ की मूर्तियाँ पहली शती ई० से ही बनने लगीं जिसके उदाहरण मथुरा से प्राप्त हुए हैं । नेमि का लांछन शंख है जो कृष्ण से उनके सम्बन्ध का सूचक है । नेमि के यक्ष यक्षी गोमेध एवं अम्बिका हैं । कला में यक्ष के रूप में कुबेर का अंकन हुआ है । दिगम्बर स्थलों पर कुषाणकाल से ही नेमिनाथ के पावों में हलधर बलराम और शंख, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002115
Book TitleJain Mahapurana Kalaparak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKumud Giri
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages334
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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