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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा विरचित प्रज्ञाकर के प्रमाणवार्तिकालङ्कार की समीक्षा की गयी है। लगभग आधा प्रमाणवार्तिकालङ्कार इस ग्रंथ में परीक्षित हुआ है । ५६ प्रमाणनिर्णय - वादिराज की अन्य उपलब्ध कृतियां हैं- पार्श्वनाथचरित, यशोधरचरित, एकीभावस्तोत्र एवं प्रमाणनिर्णय । इनमें प्रमाणनिर्णय प्रमाणशास्त्र की लघुकाय एवं स्वतंत्र रचना है जो अकलङ्क प्रणीत न्याय-ग्रंथों पर आधारित है । प्रमाणनिर्णय संस्कृत गद्य में निर्मित है, जिसके चार परिच्छेद हैं— प्रमाणलक्षणनिर्णय, प्रत्यक्षनिर्णय, परोक्षप्रमाणनिर्णय और आगमनिर्णय । इस लघुकाय प्रकरण में वादिराज परोक्ष प्रमाण के अनुमान एवं आगम ये दो ही भेद करते हैं तथा अनुमान के गौण भेदों में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क का प्रतिपादन करते हैं। इस ग्रंथ का प्रकाशन माणिक्यचन्द्र जैन ग्रंथमाला के अन्तर्गत हुआ है । अभयदेवसूरि और तत्त्वबोधविधायिनी (१० वीं शती) जैनदर्शन में अभयदेवसूरि नामक अनेक आचार्य हुए हैं। अभयदेवसूरि नामक एक आचार्य जैन आगमों के टीकाकार हुए हैं, जिन्होनें स्थानांग, समवायांग आदि नौ आगमों पर टीकाएं लिखी थी, किन्तु ये वर्धमानसूरि के प्रशिष्य एवं जिनेश्वरसूरि के दीक्षा- शिष्य थे। ये नवाङ्गी टीकाकार के रूप में प्रसिद्ध हैं । इनका समय विक्रम की ग्यारहवीं शती का उत्तरार्द्ध एवं बारहवीं शती का पूर्वार्द्ध (वि०स० १०८८-११३९) माना गया है। २५५ यहाँ पर सिद्धसेन रचित सम्पतितर्क के टीकाकार के रूप में प्रसिद्ध अभयदेवसूरि की चर्चा अभीष्ट है। ये श्वेताम्बर राजगच्छीय प्रद्युम्नसूरि के शिष्य थे । इन्हें तर्कपंचानन, न्यायरत्नकीर्ति एवं न्यायवनसिंह उपाधियों से संबोधित किया गया है। पं० सुखलाल संघवी एवं पं० बेचरदासदोशी ने इनका समय विक्रम की दसवीं शताब्दी का उतरार्द्ध एवं ग्यारहवीं शती का पूर्वार्द्ध बतलाया है । २५६ पं० सुखलाल संघवी ने अभयदेवसूरि रचित सन्मतितर्कटीका पर कुमारिल भट्ट, शान्तरक्षित, कमलशील एवं प्रभाचन्द्र के ग्रंथों का प्रतिबिम्ब माना है । २५७ पं० महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने अभयदेवसूरि का समय विक्रम की ग्यारहवीं शती का अन्तिम भाग माना है। वे अभयदेव, शान्तिसूरि एवं प्रभाचन्द्र को लगभग समकालीन एवं समदेशीय मानते हैं। साथ ही उन्होंने प्रभाचन्द्र के प्रमेयकमलमार्तण्ड एवं अभयदेवसूरि की सन्मतितर्कटीका (तत्त्वबोधविधायिनी ) में अकल्पित सादृश्य माना है । २५८ इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रमेयकमलमार्तण्ड एवं तत्त्वबोधविधायिनी में यत्र तत्र विषयसामग्री के प्रस्तुतीकरण में शब्दों का साम्य 1 है । तत्त्वबोधविधायिनी, प्रमेयकमलमार्तण्ड एवं न्यायकुमुदचन्द्र का अंतरंग अध्ययन करने पर हमें २५५. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग, ३ पृ० ४५ । २५६. तत्त्वबोधविधायिनी, भाग – १, प्रस्तावना, पृ० १३ २५७. तत्त्वबोधविधायिनी, भाग-१, प्रस्तावना, पृ० १३ २५८. न्यायकुमुदचन्द्र, भाग-२, प्रस्तावना, पृ० ३९-४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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