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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन-परम्परा
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हुए हैं ऐसा उनके कथन से प्रतीत होता है
असिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धो मल्लवादिनः ।
Qधा समन्तभद्रस्य हेतुरेकान्तसाधने ।-न्यायावतारवार्तिक, ५३ इसमें प्रदत्त क्रम संभवतः सिद्धसेन, मल्लवादी एवं समन्तभद्र का पौर्वापर्य निर्धारित कर देता है। मल्लवादी के नयचक्र का प्रथम पद्य भी शान्तिसूरि ने अपने वार्तिक में उद्धृत किया है ।१८४
सिद्धर्षिगणि रचित न्यायावतारविवृति में धर्मकीर्ति कुमारिल, धर्मोत्तर, प्रज्ञाकरगुप्त आदि दार्शनिकों का खण्डन हुआ है । इस आधार पर सिद्धर्षिगणि को ई. नवीं शताब्दी में रखा जा सकता है। ए०एन०उपाध्ये ने इनका समय विक्रम संवत् ९६२ दिया है तदनुसार उन्हें ईसवीय नवीं शती में मानना उचित प्रत र होता है। सिद्धर्षिगणि की टीका सिद्धसेन के मूल-कथन को प्रकाशित करने के साथ अपनी मौलिक विशेषता भी रखती है। सन्मतितर्कप्रकरण-सिद्धसेन का प्राकृत भाषा में रचित यह महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रंथ है। इसमें १६६ पद्य तथा तीन काण्ड हैं ।प्रथम काण्ड का नाम 'नयकंडयं' द्वितीय का नाम 'जीवकंडयं' है एवं तृतीय काण्ड के नाम का उल्लेख नहीं है । पं० सुखलाल संघवी ने इन तीनों काण्डों की विषयवस्तु के आधार पर उनको इस क्रम से नये नाम दिये हैं यथा- नयमीमांसा, ज्ञानमीमांसा एवं ज्ञेयमीमांसा ।सम्पूर्ण सन्मतितर्क में सिद्धसेन ने अपने समय तक प्रचलित अथवा चर्चित दार्शनिक अभिमतों का अनेकान्त दृष्टि से परीक्षण किया है। वे प्रथमकाण्ड में अनेकान्तवाद से फलित नयवाद एवं सप्तभंगीवाद की चर्चा करते हैं। दूसरे काण्ड में दर्शन एवं ज्ञान की मीमांसा है । सिद्धसेन ने प्रतिपादित किया है कि दर्शन से द्रव्य का तथा ज्ञान से पर्याय का ग्रहण होता है ।१८५ केवलज्ञान एवं केवल दर्शन का वे युगपद्भाव अथवा अभेदवाद स्थापित करते हैं। तीसरे काण्ड में अनेकान्तदृष्टि से ज्ञेयतत्त्व की चर्चा की गयी है । इसमें सामान्य और विशेषवाद,अस्तित्व और नास्तित्ववाद,आत्मस्वरूपवाद,द्रव्य और गुण का भेदाभेदवाद आदि अनेक विषयों का सूक्ष्म,विस्तृत एवं स्पष्ट निरूपण करते हुए एकान्त और अनेकान्त के उदाहरण देकर उनके गुण-दोष बतलाए गये हैं ।सिद्धसेन की मान्यता है कि जितने वचनमार्ग होते हैं,उतने ही नय हो सकते हैं । १८६ नय के सम्बन्ध में उनका यह चिन्तन भारतीयदर्शन में आज भी महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है।
सम्मतितर्कप्रकरण पर आचार्य अभयदेवसूरि कृत तत्त्वबोधविधायिनी नामक विस्तृत एवं १८४. वह पद्य है-विधिनियमभंगवृत्तिव्यतिरिक्तत्वादनकवचोवत् ।
जैनादन्यच्छासनमनृतं भवतीति वैधर्म्यम् ॥-न्यायावतारवार्तिक,५६ १८५. जं सामण्णगहणं दसणमेयं विसेसियं नाणं ।
दोण्ह वि णयाण एसो पाडेक्कं अत्थपज्जाओ ||-सन्मतितर्कप्रकरण, २.१ १८६. जावइआ वयणपहा तावइआ चेव हुंति णयवाया ।-सन्मतितर्क-प्रकरण, ३.३७
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