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प्रमाणमीमांसा की बौद्ध-जैन- परम्परा
की कृतियों में विकास हुआ है। सिद्धसेन के समय तक प्रमाण का उपयोग आम बात हो गयी थी इसलिए वे कहते हैं कि प्रमाणादि की व्यवस्था अनादि निधनात्मक है तथा इसका व्यवहार करने वालों में भी यह प्रसिद्ध है, तथापि मूढ जनों के व्यामोह के निवारण हेतु इसकी रचना की जा रही है
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प्रतिभामूर्ति सिद्धसेन की ३२ कारिका परिमित इस न्यायरचना में प्रमाण का लक्षण, प्रमाण-भेद एवं उनके स्वरूप का सारगर्भित निरूपण है। सिद्धसेन ने स्व एवं पर के आभासी तथा बाधविवर्जित ज्ञान को प्रमाण कहा है' 'तथा उसको प्रत्यक्ष एवं परोक्ष इन दो श्रेणियों में विभक्त किया है। परोक्ष प्रमाण में वे अनुमान एवं आगम प्रमाण का ही अन्तर्भाव करते हैं, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान व तर्क का नहीं । इसका तात्पर्य है कि स्मृति आदि प्रमाणों का विकास सिद्धसेन के पश्चात् भट्ट अकलङ्क आदि दार्शनिकों ने किया है ।
सिद्धसेन ने प्रत्यक्ष प्रमाण का विस्तृत विवरण नहीं देते हुए भी उसे अर्थ का साक्षात् ग्राहक ज्ञान प्रतिपादित किया । १६९ दलसुखभाई मालवणिया का मत है कि उत्तरकाल में अकलङ्क द्वारा निरूपित सांव्यावहारिक प्रत्यक्ष आचार्य सिद्धसेन को भी अभीष्ट है । १७० बौद्ध दर्शन में जिस प्रकार अनुमान के स्वार्थ एवं परार्थ भेद किये गये, सिद्धसेन उन्हें प्रत्यक्ष में भी लागू करते हैं। १७१ सिद्धसेन का मत है कि प्रत्यक्ष एवं अनुमान दोनों प्रमाण अभ्रान्त हैं । भ्रान्त ज्ञान का प्रमाण होना शक्य नहीं है । १७२ सिद्धसेन के अनुसार साध्याविनाभावी लिङ्ग से साध्य का निश्चय होना अनुमान है।' यह अनुमान तथोपपत्ति एवं अन्यथानुपपत्ति रूप द्विविध हेतुओं से होता है। १७४ साध्य एवं साधन की व्याप्ति जहां निश्चित हो वहां साधर्म्य दृष्टान्त होता है तथा साध्य के अभाव में साधन का अभाव पाये जाने पर वैधर्म्यदृष्टान्त होता है। १७२
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सिद्धसेन ने हेतु के अन्यथानुपपत्ति रूप लक्षण का प्रतिपादन करने के साथ उसके असिद्ध,
१६७. (१) प्रमाणादिव्यवस्थेयमनादिनिधनात्मिका ।
सर्वसंव्यवहर्तॄणां प्रसिद्धापि प्रकीर्तिता ॥ - न्यायावतार, ३२ (२) प्रसिद्धानां प्रमाणानां लक्षणोक्तौ प्रयोजनम् ।
तद्व्यामोहनिवृत्तिः स्याद् व्यामूढमनसामिह || न्यायावतार, ३ १६८. प्रमाणं स्वपरा भासि ज्ञानं बाधविवर्जितम् । - न्यायावतार, १ १६९. अपरोक्षतयार्थस्य ग्राहकं ज्ञानमीदृशम् ।
प्रत्यक्षमितरद् ज्ञेयं परोक्षं ग्रहणेक्षया ॥ - न्यायावतार, ४ १७०. आगमयुग का जैन दर्शन, पृ० २७६ १७१. प्रत्यक्षेणानुमानेन प्रसिद्धार्थप्रकाशनात् ।
परस्य तदुपायत्वात् परार्थत्वं द्वयोरपि ॥ - न्यायावतार, ११
१७२. अनुमानं तदभ्रान्तं प्रमाणत्वात् समक्षवत् । न प्रत्यक्षमपि प्रान्तं प्रमाणत्वविनिश्चयात् ।
भ्रान्तं प्रमाणमित्येतद् विरुद्धवचनं यतः ।-न्यायावतार, ५-६ १७३. साध्याविनाभुनो लिङ्गात् साध्यनिश्चायकं स्मृतम् । - न्यायावतार, ५
१७४. न्यायावतार, १७
१७५. न्यायावतार, १८-१९
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