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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
इनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं प्रमाणशास्त्र का निरूपण करने वाली द्वात्रिंशिका न्यायावतार है जो बावीसवीं बत्तीसी के रूप में स्वीकार की गयी है । सिद्धसेन की उपलब्ध समस्त रचनाओं का संकलन ए०एन० उपाध्ये द्वारा संपादित, Siddhasena's Nyayavatar and other works' में हुआ है, जिसका प्रकाशन जैन साहित्य विकास मण्डल, बम्बई से १९७१ ई० में हुआ है ।
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आचार्य सिद्धसेन के स्थितिकाल के सम्बन्ध में विद्वानों की मुख्यतः दो मान्यताएं हैं। प्रथम मान्यता के संस्तावक पं० सुखलाल संघवी, पं० दलसुख मालवणिया आदि श्वेताम्बर जैन विद्वान् हैं। जो सिद्धसेन को ई० चौथी पांचवीं शती में सिद्ध करते हैं । १६० दूसरी मान्यता के प्रस्तावक या संस्तावक पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, पं० जुगलकिशोर मुख्तार आदि दिगम्बर जैन विद्वान् हैं जो इन्हें सातवीं शती का सिद्ध करते हैं। १६१ जैकोबी एवं पी० एल० वैद्य ने भी सिद्धसेन को सातवीं शती में रखा है । १६२ किन्तु पं० सुखलाल संघवी एवं बेचरदास दोशी ने सन्मतिप्रकरण की प्रस्तावना में सातवीं शती की मान्यता का युक्तिपुरस्सर खण्डन किया है एवं पांचवीं शती का काल निर्धारित किया है । पं० दलसुख मालवणिया ने भी इसका समर्थन किया है १६३, हरिभद्रसूरि ने मल्लवादी क्षमाश्रमण को सिद्धसेन के सन्मतितर्क का टीकाकार कहा है १६४ तथा मल्लवादी का समय पांचवीं शती से पूर्व (विक्रम संवत् ४१४) माना जाता है। तदनुसार सिद्धसेन का समय पांचवी शती से अधिक नहीं माना जा सकता है । किन्तु सिद्धसेन के न्यायावतार का आंतरिक परीक्षण उन्हें दिनाग के उत्तरकालीन सिद्ध करता है । इसलिए हमारे मत में सिद्धसेन का समय पांचवीं छट्ठी शती उपयुक्त है । १६५. प्रस्तुत अध्ययन में सिद्धसेन के न्यायावतार एवं सन्मतितर्क का महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
साधारणतया
न्यायावतार - न्यायावतार जैनन्याय की प्रथम व्यवस्थित रचना है। सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने मध्यकालीन न्याय के अन्तर्गत जैनन्याय की कृतियों में इसे प्रथम स्थान दिया है । १६६ जैनन्याय का व्यवस्थित रूप भट्ट अकलङ्क से प्रारम्भ माना गया है, किन्तु न्यायावतार इस धारणा को मिथ्या सिद्ध कर देता है,क्योंकि इसमें प्रमाण का संक्षिप्त एवं सर्वांग विवेचन है । उसी का अकलङ्क
१६०. द्रष्टव्य (i) ‘श्री सिद्धसेन दिवाकर ना समय नो प्रश्न' भारतीय विद्या, भाग ३, पृ० १५२ (ii) आगमयुग का जैन दर्शन, पृ० २७० (iii) सन्मतितर्कप्रकरण, प्रस्तावना
१६१. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृ. ५४३ से ५६६
१६२. आगमयुग का जैनदर्शन,, पृ. २७१
१६३. अ. गमयुग का जैनदर्शन, पृ० २७१
१६४. उक्तं च वादिमुख्येन श्री मल्लवादिना सम्मतौ । अनेकान्तजयपताका, भाग-२, पृ० ४७
१६५. सिद्धसेन का यह समय निर्धारित करने के पीछे अनेक तर्क है, यथा
(i) पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि में सिद्धसेन की तीसरी द्वात्रिंशिका का १६ वां पद्य उद्धृत हुआ है। द्रष्टव्य, सर्वार्थसिद्धि ७.१३ एवं तृतीय द्वात्रिंशिका का १६ वाँ पद्य ।
(ii) न्यायावतार में जो 'अभ्रान्त' पद का उल्लेख हुआ है वह दार्शनिक असङ्ग से आया है, धर्मकीर्ति से नहीं । असङ्ग ने प्रत्यक्षलक्षण में अप्रान्त पद का प्रयोग इस प्रकार किया है- 'प्रत्यक्षं स्वसत्यप्रकाशाऽ भ्रान्तोऽर्थ :-अभिधर्मसमुच्चय, विश्वभारती संस्करण, १९५९, परिच्छेद ४, पृ० १०५
१६६. A History of Indian Logic, p. 173
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