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________________ ३८४ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा प्रत्यक्ष न होने पर भी पारमार्थिक प्रत्यक्ष जैसा प्रतीत हो उसे पारमार्थिक प्रत्यक्षाभास कहा गया है, यथा शिव नामक राजर्षि को हुआ असद् अवधिज्ञान (विभङ्गज्ञान)। शिव राजर्षि को अपने ज्ञान में असंख्यात द्वीप-समुद्रों के स्थान पर सात द्वीप-समुद्र ही सत्य प्रतीत हुए। स्मरणाभास का लक्षण देते हुए वादिदेवसूरि ने कहा है कि अननुभूत (अज्ञात) वस्तु की वह है' इस तरह पूर्वज्ञात की भांति स्मृति होना स्मरणाभास है । सदृश पदार्थ में यह वही है ,एक पदार्थ में यह उसके सदृश है आदि ज्ञान प्रत्यभिज्ञानाभास है । व्याप्ति के न होने पर भी व्याप्ति का आभास होना तर्काभास है ।अनुमानाभास के लिए कहा गया है कि पक्षाभास आदि से उत्पन्न होने वाला ज्ञान अनुमानाभास है । अनाप्तपुरुष के वचन से उत्पन्न होने वाले ज्ञान को आगमाभास कहा गया है। बौद्ध दर्शन के अनुसार विसंवादक एवं ज्ञात अर्थ का ग्राहक ज्ञान प्रमाणाभास है, ऐसा उनके द्वारा प्रदत्त प्रमाणलक्षणों (प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम् ५६ एवं अज्ञातार्थाज्ञापकमिति प्रमाणसामान्य लक्षणम्' १५७ से विदित होता है । बौद्ध दर्शन में प्रतिपादित प्रत्यक्षाभास का विवेचन तृतीय अध्याय में किया जा चुका है ।१५८ हेत्वाभास, पक्षाभास एवं दृष्टान्ताभास की चर्चा इस ग्रन्थ के चतुर्थ अध्याय में बौद्ध एवं जैन दर्शनों के अनुसार तुलनात्मक रूप में की जा चुकी है । अतः इसके लिए वह अध्याय द्रष्टव्य है। १५६. प्रमाणवार्तिक, १.३ १५७. प्रमाणसमुच्चयटीका, पृ. ११ १५६. द्रष्टव्य, तृतीय अध्याय, पृ. १२१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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