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प्रमेय ,प्रमाणफल और प्रमाणाभास
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प्रमाण-फल में समाविष्ट कर लिया है, जो न्यायदर्शन से साम्य रखता है। इसी प्रकार अकलङ्कने अवग्रह, ईहा, अवाय एवं धारणा में क्रमशः पूर्व पूर्व को प्रमाण तथा उत्तर उत्तर को फल रूप में प्रस्तुत किया है ।६९
बौद्ध दार्शनिकों के समान जैनदार्शनिकों ने भी प्रमाण एवं उसके फल को ज्ञानात्मक स्वीकार किया है। जैनदार्शनिकों के सामने भी बौद्धों की भांति प्रमाण एवं फल में भेद स्थापित करने की समस्या उठी तो जैन दार्शनिकों ने उन्हें कथञ्चित् भिन्न एवं कथञ्चित् अभिन्न सिद्ध किया। जैनदार्शनिक कहते हैं कि यद्यपि प्रमाण का साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति स्वपरव्यवसायी ज्ञान से अभिन्न प्रतीत होता है, किन्तु प्रमाण साधन एवं अज्ञाननिवृत्ति स्वपरव्यवसिति रूप साध्य है। इनमें साध्य-साधन की प्रतीति होने से ये दोनों कथञ्चित् भिन्न हैं। इसी प्रकार हान ,उपादान एवं उपेक्षा बुद्धि प्रमाण से भिन्न प्रतीत होती है तथापि एक ही प्रमाता द्वारा प्रमाण एवं हानोपादानोपेक्षाबुद्धि रूप फल की प्रतीति होती है,इसलिए उनमें कथञ्चित् अभेद भी है।७२ एक ही प्रमाता आत्मा का प्रमाणरूप परिणमन होने के पश्चात् फलरूप परिणमन प्रतीत होता है ,इसलिए फल एवं प्रमाण का कथञ्चित्
अभेद माना जा सकता है २ तथा प्रमाण की करण रूप में,फल की साध्य रूप में एवं प्रमाता की कर्ता रूप में प्रतीति होती है, इसलिए वे कथञ्चित् भिन्न भी हैं। विद्यानन्द, वादिदेवसूरि आदि का मन्तव्य है कि यदि प्रमाण एवं फल कथञ्चित् भिन्न एवं कथञ्चित् अभिन्न न हों तो प्रमाण एवं फल की व्यवस्था नहीं बन सकती। जैनदर्शन में प्रमेय दो प्रकार का माना गया है-स्व एवं पर । जब ज्ञान ही प्रमेय हो तो वह 'स्व' तथा जब बाह्य अर्थ प्रमेय हो तो उसे 'पर' कहा गया है । ज्ञान को पर प्रकाशक मानने के साथ उसका स्वप्रकाशक होना भी आवश्यक माना गया है । इसलिए कभी ज्ञान भी प्रमेय रूप हो सकता है । ज्ञान को प्रमेय मान लेने पर प्रमेय,प्रमाण,प्रमिति एवं प्रमाता सभी ज्ञानात्मक हो जाते हैं । तथापि जैन दार्शनिक व्यवस्था की दृष्टि से साध्य, साधन, कार्य एवं कर्ता के रूप में उनमें ६९. (१) पूर्वपूर्वप्रमाणत्वं फलं स्यादुत्तरोत्तरम् । लघीयस्त्रय,७
(२) पौर्वापर्येण सम्प्राप्तप्रमाणफललक्षणाः।-सिद्धिविनिश्चय, २.१५ (३) न्यायदर्शन में निर्विकल्पक प्रत्यक्ष, इन्द्रिय प्रमाण का फल तथा सविकल्पक प्रत्यक्ष का प्रमाण है, आदि।-तर्क
भाषा (केशवमिश्र), प्रत्यक्ष निरूपण। ७०. (१) प्रमाणफलयोः क्रमभेदेऽपि तादात्म्यमभिन्नविषयत्वञ्च प्रत्येयम् । लघीयस्त्रयवृत्ति, ६, अकलङ्कग्रंथत्रय, पृ० ३
(२) प्रमाणाद्भिन्नमभिन्नं च।-परीक्षामुख, ५.२ (३) प्रमाणपरीक्षा, पृ०६६
(४) प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६.६ ७१. (१) तस्यापि कथञ्चित् भेदप्रसिद्धेः प्रमाणफलयोः साधनभेदात् ।-प्रमाणपरीक्षा, पृ०६६
(२) प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग ३, पृ०५०२-५१३ ७२. तस्यैकप्रमातृतादात्म्येन प्रमाणादभेदव्यवस्थितिः ।- प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६.८ ७३. प्रमाणतया परिणतस्यैवात्मनः फलतया परिणतिप्रतीतेः।-प्रमाणनयतत्त्वालोक.६.९ ७४. साध्यसाधनभावेन प्रमाणफलयोः प्रतीयमानत्वात्।- प्रमाणनयतत्त्वालोक,६.१४ ७५. प्रमाणात्फलं कथञ्जिन भिन्नमभिन्न च, प्रमाणफलत्वानपपत्तेः ।-प्रमाणपरीक्षा, प०६६ ७६. इतरथा स्वपरयोः प्रमाणफलव्यवस्थाविप्लवः प्रसज्येत ।- प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६.११
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