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________________ ३६६ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा पर वस्तु का अध्यवसाय होता है। समासतः कहें तो तदुत्पत्ति से ताद्रूप्य एवं ताद्रूप्य से तदध्यवसाय होता है । जिस नीलवस्तु से ज्ञान की उत्पत्ति होती है वह ज्ञान नील वस्तु के सरूप होता है तथा नीलाकार होने से नील वस्तु का नीलरूप में अध्यवसाय होता है।६° वस्तुतः तदुत्पत्ति एवं ताद्रूप्य से ही प्रतिनियत व्यवस्था शक्य होती है। जैन दर्शन में प्रमाण-फल जैन दर्शन में ज्ञान का आविर्भाव ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम अथवा क्षय से माना गया है। उसमें अर्थ, आलोक आदि को कारण नहीं माना गया।६१ जैन दार्शनिकों का मन्तव्य है कि हमें अर्थ की उपस्थिति में भी उसका ज्ञान नहीं होता है, यदि तत्सम्बद्ध ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम नहीं हो तो।६२ इसलिए जैन दार्शनिकों ने विषयाधिगति को सीधा प्रमाण-फल नहीं कहकर तत्सम्बद्ध अज्ञाननिवृत्ति को प्रमाण का फल कहा है । ६२ हमें घट' का ज्ञान हुआ है । इसका अर्थ है घट सम्बन्धी अज्ञान की निवृत्ति हुई है। अज्ञाननिवृत्ति के रूप में प्रमाण-फल का कथन संभवतः जैनागमों से संगति बिठाने के लिए किया गया है, अन्यथा स्व एवं अर्थ का निश्चय करना भी प्रमाण का फल है ।६४ प्रमाण-फल को जैन दर्शन में दो प्रकार का निरूपित किया गया है - (१) अनन्तर अथवा साक्षात् फल तथा (२) परम्परा फल" । प्रत्यक्ष,अनुमान आदि समस्त प्रमाणों का साक्षात् फल अज्ञाननिवृत्ति है।६६ परम्पराफल को पुनः दो भागों में विभक्त किया गया है। केवलज्ञान का परम्परा-फल उपेक्षाबुद्धि है तथा अन्य समस्त ज्ञानों या प्रमाणों का परम्परा फल हान,उपादान एवं उपेक्षा बुद्धि है।६८ इस प्रकार जैनदार्शनिकों ने प्रमाण-फल से अज्ञाननिवृत्ति के रूप में प्रमेय का ज्ञान होना तो स्वीकार किया ही है साथ ही उस प्रमितार्थ के ग्रहण करने,त्यागने अथवा उपेक्षा बुद्धि रखने को भी ६०. प्रमाणवार्तिक , २.३२०-३२५ ६१. नार्थालोको कारणं परिच्छेद्यत्वात् तमोवत् ।- परीक्षामुख, २.६ ६२. जेनदर्शनानुसार मतिज्ञानावरण के क्षयोपशम (कमी) से इन्द्रियजन्य ज्ञान होता है । ६३.(१) प्रमाणस्य फलं साक्षादज्ञानविनिवर्तनम् ।- सिद्धसेन, न्यायावतार, २८ (२) स्वार्थव्यवसितौ व्याप्रियमाणं हि प्रमाणमज्ञाननिवृत्तिं साधयेत् ।-विद्यानन्द, प्रमाणपरीक्षा, पृ.६६.२२ (३) वेदान्त में प्रमाण की फलव्याप्यता स्वीकार नहीं की गयी है । ब्रह्मज्ञान में प्रमाण या शास्त्र की उपयोगिता नहीं है, किन्तु प्रमाण या शास्त्र अज्ञाननिवृत्ति में उपयोगी है, यथाफलव्याप्यत्वमेवास्य शास्त्रकदिर्निवारितम् । ब्रह्मण्यज्ञाननाशाय वृत्तिव्याप्तिरपेक्षिता || सुरेश्वराचार्य ,उद्धृत, वेदान्तसार, पृ. २३३ ६४. प्रमाणस्य फलं साक्षात्सिद्धिः स्वार्थविनिश्चयः ।-अकलङ्क सिद्धिविनिश्चय, १.३ ६५. तद् द्विविधमानन्तर्येण पारम्पर्येण च ।-प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६.२ ६६. तत्रानन्तर्येण सर्वप्रमाणानामज्ञाननिवृत्तिः फलम्। - प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६.३ ६७. पारम्पर्येण केवलज्ञानस्य तावत्फलमौदासीन्यम् । – प्रमाणनयतत्त्वालोक, ६.४ ६८.(१)शेषप्रमाणानां पनरुपादानहानोपेक्षाबद्धयः।-प्रमाणनयतत्त्वालोक.६.५ (२)समन्तभद्राचार्य ने समस्त प्रमाणों के फलों का इस प्रकार निरूपण किया है - उपेक्षा फलमाद्यस्य शेषस्यादानहानधीः । पूर्वा वाऽज्ञाननाशो वा सर्वस्यास्य स्वगोचरे ।।-आप्तमीमांसा.१०२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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