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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
होने से (३) शब्दाकार को धारण करने से अथवा तो (४) बाधित होने से ?
प्रत्यभिज्ञान का विषय स्मृति एवं प्रत्यक्ष द्वारा गृहीत नहीं है. अतः प्रत्यभिज्ञान को गहीतग्राही नहीं कहा जा सकता। अतीत एवं वर्तमान अर्थ की पर्यायों में एकत्व या सादृश्य का ज्ञान प्रत्यभिज्ञान के अतिरिक्त अन्य प्रमाण से नहीं होता। यदि प्रत्यभिज्ञान का विषय अतीत और वर्तमान पर्यायों में तादात्म्य सम्बन्ध के कारण कथञ्चित् पूर्वार्थ है तो भी उसे अप्रमाण नहीं कहा जा सकता, क्योंकि अनुमान का विषय भी सर्वथा अपूर्वार्थ नहीं है।
स्मरण के अनन्तर उत्पन्न होने से भी प्रत्यभिज्ञान को अप्रमाण नहीं कह सकते, क्योंकि रूप-स्मरण के अनन्तररस की सन्निधि में उत्पन्न रसज्ञान बौद्धों द्वारा अप्रमाण नहीं माना गया है । स्मरण के अनन्तर उत्पत्र होने से प्रत्यभिज्ञान के प्रामाण्य का निषेध करने पर तो अनुमान के प्रामाण्य को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता ,क्योंकि वह भी साध्य एवं साधन के अविनाभाव सम्बन्ध का स्मरण होने के पश्चात् उत्पन्न होता है । स्मरण के अभाव में दृष्टान्त का कथन भी शक्य नहीं है,जबकि बौद्धों ने दृष्टान्त को अनुमान का अंग स्वीकार किया है।
शब्दाकार को धारण करने से (शब्द योजना युक्त होने से) प्रत्यभिज्ञान को यदि अप्रमाण कहा जाता है तो भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि जैन मत में ज्ञान को शब्दाकार (शब्द योजना युक्त ही) नहीं माना गया है । शब्द से विविक्त भी ज्ञान जैनमत में अभीष्ट है । प्रत्यक्ष -प्रमाण को जैनदार्शनिकों ने सविकल्पक मानकर भी शब्द-योजना से रहित माना है।
प्रत्यभिज्ञान बाधित होता है इसलिए अप्रमाण है, ऐसा मन्तव्य भी असम्यक् है, क्योंकि प्रत्यभिज्ञान न प्रत्यक्ष से बाधित होता है औरन अनुमान से । प्रत्यक्ष एवं अनुमान की प्रवृत्ति प्रत्यभिज्ञान के विषय में नहीं होती है । जो जिसके विषय में प्रवृत्त नहीं होता है वह न उसका साधक होता है और न बाधक । अनुमान-प्रमाण भी प्रत्यभिज्ञान के विषय में प्रवृत्त नहीं होता है, अतः वह भी प्रत्यभिज्ञान का बाधक नहीं है । यदि अनुमान कदाचित् उसके विषय में प्रवृत्त होता है तो भी वह प्रत्यभिज्ञान के विषय का सर्वथा बाधक नहीं है, इसलिए प्रत्यभिज्ञान सकल बाधकों से रहित होने से प्रमाण है।
एकत्व प्रत्यभिज्ञान की भांति “गवय गौ के सदृश होता है” आदि सादृश्य प्रत्यभिज्ञान भी बाधकाभाव के कारण तथा संवादक होने से प्रमाण होते हैं। सादृश्य प्रत्यभिज्ञान से ही महानस के धूम दर्शन के पश्चात् पर्वत-धूम को धूम रूप में जाना जाता है और उसके अनन्तर अनुमान प्रमाण होना संभव होता है ,अन्यथा नहीं। इसलिए प्रत्यभिज्ञान संवादक होने से प्रमाण है । २७
नैयायिकों के उपमान-प्रमाण में सादृश्य प्रत्यभिज्ञान का अन्तर्भाव हो सकता है, किन्तु उसमें एकत्व,वैलक्षण्य,प्रतियोगी आदि प्रत्यभिज्ञानों का अन्तर्भाव होना शक्य नहीं है, अतः प्रत्यभिज्ञान १२७. प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२, पृ. २९३-९५
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