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स्मृति ,प्रत्यभिज्ञान ,तर्क एवं आगम का प्रामाण्य तथा अपोह-विचार
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प्रत्यभिज्ञान में प्रवेश नहीं होता, यह कथन भी युक्त नहीं है, क्योंकि इनका प्रत्यभिज्ञान में प्रवेश स्वरूप सांकर्य के रूप में नहीं होता है, अपितु प्रत्यभिज्ञान में इनकी निर्बाध प्रतीति होती है, जिसे स्वीकार करना चाहिए। नील के निर्बाध प्रतीत होने से जिस प्रकार बौद्ध उसे नील रूप में स्वीकार करते हैं उसी प्रकार वह' एवं 'यह' इन दो आकारों से समन्वित एक प्रत्यभिज्ञान की निर्बाध प्रतीति होने से उसे स्वीकार करने में कोई दोष नहीं है ,अन्यथा बौद्धमत में चित्रज्ञान की सिद्धि नहीं हो सकेगी, क्योंकि नीलादि ज्ञानों का परस्पर अनुप्रवेश न मानने पर भिन्न सन्तान वाले नीलादि प्रतिभासों के अत्यन्त भिन्न होने से चित्रता सिद्ध नहीं हो सकती । एक चित्रज्ञान रूप अधिकरण में नीलादिप्रतिभासों की प्रत्यक्षतः प्रतीति मानते हैं तो प्रत्यभिज्ञान में भी आकारद्वय की प्रतीति मानने में कोई बाधा नहीं है। अतः विरुद्ध धर्मों के अध्यास से प्रत्यभिज्ञान का अभाव नहीं कहा जा सकता। ___ कारणों का अभाव होने से प्रत्यभिज्ञान संभव नहीं है,ऐसा मानना भी युक्तिसंगत नहीं है,क्योंकि प्रत्यक्ष एवं स्मरण ये दोनों प्रत्यभिज्ञान के कारण हैं। प्रत्यभिज्ञान के लक्षण में ही इनको स्थान दिया गया है। यदि यह कहा जाय कि प्रत्यक्ष एवं स्मरण के विषय एवं आकार भिन्न-भिन्न हैं, अत: ये प्रत्यभिज्ञान के कारण नहीं हो सकते तोप्रभाचन्द्र कहते हैं कि दर्शन (प्रत्यक्ष)और स्मरण का प्रत्यभिज्ञान के साथ अन्वय एवं व्यतिरेक सम्बन्ध है । जो जिसका अन्वय-व्यतिरेक विधायी होता है वह उसका कारण होता है,यथा बीजादि के होने पर ही अंकुर उत्पन्न होता है, बीज के अभाव में अंकुर उत्पन्न नहीं होता । अतः बीज अंकुर का कारण है । इसी प्रकार दर्शन और स्मरण के होने पर ही प्रत्यभिज्ञान उत्पन्न होता है, अन्यथा नहीं। इसलिए वे दोनों प्रत्यभिज्ञान के कारण हैं। कारणों का सद्भाव होने से बौद्ध आशंका मिथ्या सिद्ध होती है । दूसरी बात यह है कि प्रत्यभिज्ञान कार्य है । कार्य प्रतीत होता हुआ अपने कारण के सद्भाव का बोध कराता है अतःप्रत्यभिज्ञान के कारण का अभाव नहीं कहा जा सकता।
विषयाभाव के कारण प्रत्यभिज्ञान को अप्रमाण मानना सर्वथा अनुचित है,क्योंकि प्रत्यभिज्ञान का विषय पूर्व एवं उत्तर काल में रहने वाला एक द्रव्य होता है । प्रत्यक्षादि से प्रत्यभिज्ञान का स्वरूप भिन्न है अत: उसका विषय भी भिन्न है। प्रत्यक्ष का विषय वर्तमान काल से अवच्छिन्न होता है तथा स्मरण का विषय अतीतकाल से अवच्छिन्न होता है, जबकि प्रत्यभिज्ञान का विषय दोनों कालों से अवच्छिन्न द्रव्यविशेष होता है । क्षणभंगवाद के कारण यदि द्रव्यविशेष का होना असंभव है तो यह मानना भी अनुचित है,क्योंकि एकान्त क्षणिकवाद ही सिद्ध नहीं है । १२६
प्रभाचन्द्र प्रत्यभिज्ञान को प्रमाण रूप में प्रतिष्ठित करने हेतु बौद्धों से प्रश्न करते हैं कि फिर प्रत्यभिज्ञान को अप्रमाण क्यों माना जाता है ? (१) गृहीतग्राही होने से (२) स्मरण के अनन्तर उत्पन्न
१२६.(१)न्यायकुमुदचन्द्र,भाग-२,पृ.४१४-१८
(२) स्याद्वादरलाकर,पृ.४९२-९६
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