________________
२८०
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
लिए गम्यमान हेतु का भी कथन करना पड़ता है तो इसी प्रकार मंदमति की प्रतिपत्ति के लिए पक्षवचन का भी प्रयोग करना उचित है।३७१
वादिदेवसूरि ने बौद्ध मत का पूर्वपक्ष में उपन्यास कर उसका विधिवत् खण्डन किया है। माणिक्यनन्दी एवं प्रभाचन्द्र के तर्कों को भी वादिदेव ने अपनाया है, किन्तु यहां उनके नवीन तर्क उपस्थापित हैं। बौद्ध - पक्ष का ज्ञान विवाद से ही हो जाता है,अतः परार्थानुमान में पक्ष का कथन करना अनुपपन्न हैं। विरुद्ध वाद को विवाद कहते हैं,यथा एक ने कहा- 'शब्द नित्य है.' दूसरे ने कहा 'शब्द अनित्य है' यह विवाद है । विवाद का प्रसंग होने पर अनुमान में पक्ष प्रतीत होता ही है,अतः बिना प्रयोजन पक्ष का कथन करना अनुचित है। ___यदि पक्ष साध्य अर्थ का प्रतिपादन करने रूप प्रयोजन से युक्त है अतः उसका कथन आवश्यक है तो ऐसा मानना अनुचित है,क्योंकि अकेला पक्ष-वचन साध्य अर्थ का प्रतिपादन करता है अथवा हेतु से समन्वित होकर वह साध्य अर्थ का प्रतिपादन करता है? अकेला पक्षवचन साध्य अर्थ का प्रतिपादन नहीं करता अन्यथा हेतु का कथन करना व्यर्थ हो जायेगा । यदि हेतु से युक्त होकर ही पक्ष साध्य अर्थ का प्रतिपादन करता है, तो उसमें हेतु का ही सामर्थ्य मानना उचित है । अतः पक्षवचन का प्रयोग अनावश्यक है।३७२ वादिदेवसूरि-विवाद से पक्ष का ज्ञान हो जाता है, अतः पक्ष का कथन अनुचित है, बौद्धों की यह मान्यता अयुक्त हैं । विवाद से पक्ष की प्रतीति दो प्रकार से होती है-(१)वादी या प्रतिवादी के किसी वचन से विरोध होने पर एवं (२) प्रस्तुत अनुमान से वाक्यावयवान्तरों में एकवाक्यता प्राप्त होने के कारण उत्पन्न विवाद से । इनमें यदि प्रथम पक्ष के अनुसार अतिव्युत्पन्न बुद्धि वाले पुरुष को विवाद से प्रतीति हो जाय तो भी अन्य पुरुषों को उनसे पक्ष की प्रतीति नहीं होती है,अतः उनके लिए पक्ष का कथन करना आवश्यक है। द्वितीय पक्ष जैन दार्शनिकों को भी अभीष्ट है क्योंकि दूसरे के द्वारा (प्रतिवादी द्वारा स्वीकृत पक्ष के विपरीत पक्ष को रखकर उसकी सिद्धि करने के लिए हेतु आदि अन्य अवयवों का कथन करना जैन दार्शनिक भी स्वीकार करते हैं।
पक्ष-वचन के प्रयोजन का अभाव बतलाना अनुचित है, क्योंकि उसके प्रयोजन का अभाव असिद्ध है । पक्षवचन का प्रयोजन है प्रतिपाद्य पुरुष को पक्ष का ज्ञान कराना । प्रतिपाद्य पुरुष भी दो प्रकार के होते हैं- (१) कुण्ठमति (मन्दमति) पुरुष और (२) तीक्ष्णमति पुरुष । कुण्ठमति पुरुष को पक्ष का प्रयोग किये बिना प्रकृत (साध्य) अर्थ का ज्ञान नहीं होता है। तीक्ष्णमति पुरुष को पक्षप्रयोग के ३७१.(१) प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२ सूत्र ३.३५, पृ. ३७५-७७(२) वादिदेवसूरि ने भी इसी प्रकार के तर्क दिये हैं । द्रष्टव्य,
स्याद्वादरत्नाकर, ३.२३, पृ.५५०-५१(३) द्रष्टव्य, न्यायकुमुदचन्द्र,पृ.४३५-४३८ ३७२. स्याद्वादरलाकर ३.२३, पृ.५४९-५०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org