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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
ऐकात्म्य को स्वीकार करने में कोई हेतु नहीं है। ऐसा स्वीकार करेंगें तो प्रमेयत्व और अनित्यत्व के भी एकात्म रूप से अध्यवसित होने पर यथाध्यवसाय इनका तादात्म्य संभव होने लगेगा, जो हो नहीं सकता, क्योंकि प्रमेय तो नित्य भी हो सकता है। यदि नित्यत्व की व्यावृत्ति नहीं करने के कारण प्रमेयत्व का अनित्यत्व के साथ तादात्म्य नहीं है, तो तादात्म्य वास्तविक नहीं है। वह कल्पना से समारोपित है । तादात्म्य को वास्तविक माना जाय तो साध्य एवं साधन का तादात्म्य होने पर जिस प्रकार शिंशपात्व से वृक्षत्व का अनुमान किया जाता है उसी प्रकार वृक्षत्व से भी शिंशपात्व का अनुमान होने लगेगा, क्योंकि तादात्म्य सम्बन्ध के कारण दोनों में अभेद है। २९५
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बौद्ध सम्बन्ध अन्य है और प्रतिबन्ध अन्य है । सम्बन्ध दो में स्थित होता है। प्रतिबन्ध में एक, दूसरे के अधीन (परायसत्व) लक्षण वाला होता है। अतः शिशपात्व वृक्षत्व में प्रतिबद्ध है, वृक्षत्व शिशपात्व में नहीं। जिस प्रकार कि धूम का अग्नि में प्रतिबन्ध है, अग्नि का धूम में नहीं ।
वादिदेवसूरि- बौद्ध कथन सही है, किन्तु इस प्रकार कहे जाने पर तो अविनाभाव ही स्वीकृत होता है, तादात्म्य नहीं । तादात्म्य में तो जिस प्रकार, वृक्षत्व समस्त वृक्षों में साधारण है उसी प्रकार शिंशपात्व भी समस्त शिशपाओं में साधारण होना चाहिए। जिस प्रकार शिंशपात्व के बिना शिशपा दिखाई नहीं देता है उसी प्रकार वृक्षत्व भी शिंशपा रहित दिखाई नहीं देना चाहिए। किन्तु खदिर आदि में शिंशपारहित वृक्षत्व दिखाई देता है।
यदि शिंशपात्व से अभिन्न कहा गया वृक्षत्व खदिर आदि के वृक्षत्व से भिन्न है तो इस प्रकार धर्मी के भेद से धर्मों का भेद मानने पर तो अन्वय (व्याप्ति) का ग्रहण ही नहीं हो सकेगा। फलत: समस्त अनुमान उत्पाटित हो जायेगा। धूम एवं अग्नि में तो कार्यकारण का भेद होने से धूम का अग्नि में प्रतिबन्ध कहना एवं अग्नि का धूम में प्रतिबन्ध नहीं कहना उचित है, किन्तु शिंशपात्व एवं वृक्षत्व के संदर्भ में साध्य एवं साधन का व्यतिरेक (भेद) नहीं होने से ऐसा नहीं कहा जा सकता। शिंशपात्व का वृक्षत्व में प्रतिबन्ध है एवं वृक्षत्व का शिशपात्व में नहीं, यदि ऐसा कहेंगे तो उनमें अभेदता नहीं रहेगी। इसलिए या तो शिंशपात्व एवं वृक्षत्व का सर्वथा तादात्म्य त्याग देना चाहिए या फिर वृक्षत्व से शिंशपात्व का भी अनुमान कर लेना चाहिए। इनके अतिरिक्त कोई अवस्था नहीं बन सकती । २९६
बौद्ध मत में सामान्य 'सत्' नहीं है अतः उसको आधार बनाकर तदुत्पत्ति का भी वादिदेवसूरि ने खण्डन किया है । वादिदेवसूरि कहते हैं कि तदुत्पत्ति भी अविनाभाव का कारण नहीं है, क्योंकि दो सामान्य पदार्थों का कार्यकारण भाव नहीं होता है, किन्तु दो विशेष पदार्थों में कार्यकारणभाव होता है । इसके लिए वे प्रभाचन्द्र की भांति धूमविशेष एवं अग्निविशेष का उदाहरण देकर कहते हैं कि जिन दो विशेषों धूम एवं अग्नि का महानस आदि में कार्यकारण भाव ज्ञात होता है, उनमें गम्य-गमक भाव
२९५. स्वाद्वादरत्नाकर, पृ. ५३४-३५
२९६. स्वाद्वादरत्नाकर, पू. ५३५
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