________________
२३२
बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
शान्तरक्षित द्वारा किये गये खण्डन एवं जैन दार्शनिकों द्वारा निरूपित पक्षधर्मत्व की अनावश्यकता पर तटस्थता से चिन्तन किया जाय तो प्रश्न उठता है कि पक्षधर्मता को यदि आवश्यक नहीं माना जायेगा तो हेतु,साध्य-देश से अन्यत्र भी साध्य की सिद्धि करने लगेगा। रसोई घर में स्थित धूम से पर्वतस्थ वह्नि की सिद्धि होने लगेगी। __ जैन दार्शनिक पक्षधर्मता को संभवतः हेतु का लक्षण इसलिए नहीं मानते हैं क्योंकि पक्ष या धर्मी से रहित साध्य या धर्म की भी सिद्धि अविनाभावी हेतु द्वारा होती हुई देखी गयी है। किन्तु जब साध्य का कोई पक्ष हो तो हेतु में पक्षधर्मता होने का जैन दार्शनिक निषेध नहीं करते हैं। पक्ष होने पर हेतु में पक्षधर्मता होनी ही चाहिए अन्यथा हेतु एवं साध्य की सिद्धि में अव्यवस्था हो जायेगी। जैनदार्शनिक हेतु की साध्याविनाभाविता से उसकी पक्षधर्मता को उपपन्न कर लेते हैं,क्योंकि जहां हेतु होगा,वहीं तो साध्य की सिद्धि हो सकेगी,हेतु का साध्य के अभाव में तो अवस्थान होता नहीं है । इस प्रकार पक्ष के होते हुए हेतु का पक्ष में होना जैन दार्शनिकों को अभीष्ट है, किन्तु पक्षधर्मत्व को हेतु का लक्षण नहीं मानकर वे प्रतिपादित करना चाहते हैं कि पक्षाभाव में भी हेतु अन्यथानुपपन्नरूप लक्षण के कारण साध्य का गमक होता है।
यहां पर दूसरा प्रश्न यह उठता है कि साध्य के अभाव में हेतु का अभाव होना अविनाभाव है, किन्तु कृत्तिका नक्षत्र का उदय शकट नक्षत्र के उदय के अभाव में भी रह सकता है अतः उसे शकटोदय का अविनाभावी कैसे कहा जा सकता है ? इस प्रश्न का समाधान यद्यपिमाणिक्यनन्दी ने अविनाभाव के दो भेद क्रम-भाव एवं सहभाव करके प्रस्तुत किया है,५५ तदनुसार कृत्तिकोदय का शकटोदय के साथ क्रमभाव रूप अविनाभाव है, किन्तु सृष्टि के विनाश काल की अनिश्चितता में आवश्यक नहीं है कि कृत्तिकोदय के अनन्तर शकट नक्षत्र का उदय हो ही । यह तो संभव है कि लोकव्यवहार में विगत अनुभवों के आधार पर हम कृत्तिका के उदय को देखकर एक मुहूर्त पश्चात् किसी अन्य नक्षत्र के उदय का निषेध कर शकट नक्षत्र के उदय की बात कह दें,और वह बात अव्यभिचरित हो । इसी संभावना एवं लोक-व्यवहार के आधार पर यदि कृत्तिकोदय को शकटोदय साध्य का गमक कहा जाय तो अत्युक्ति नहीं होगी,किन्तु साध्याविनाभावित्व रूप हेतुलक्षण की कठोर अनुपालना में कृत्तिकोदय द्वारा शकटोदय की गमकता सिद्ध करना उचित प्रतीत नहीं होता है। यदि अविनाभाव का अर्थ अव्यभिचरित होना लिया जाय, जैसा कि धर्मोत्तर की न्यायबिन्दुटीका में कहा गया है . "अव्यभिचारनियमः अविनाभावनियमः"१५६ तो जैनों द्वारा प्रतिपादित अविनाभाव हेतु लक्षण उपपन्न हो सकता है।
सपक्षसत्त्व का खण्डन करते हुए जैन दार्शनिक “अनित्यः शब्दःश्रावणत्वात्" के अतिरिक्त एक
१५५. सहक्रममावनियमोऽविनाभावः । पूर्वोत्तरचारिणोः सहभावः कार्यकारणयोश्च क्रममावः ।- परीक्षामुख, ३.१६,१८ १५६. न्यायविन्दुटीका, २.२०, पृ. ३१-३२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org