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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
चाहिए। अविनाभावित्व रूप के अनुवाद मात्र से हेतु का लक्षण परिसमाप्त हो जाता है। इसलिए पक्षधर्मत्वादि को हेतु का लक्षण कहना उचित नहीं है। यदि हेतु अविनाभावी होकर भी पक्षधर्मत्वादि के अभाव में साध्य का गमक नहीं होता है तो यह मंतव्य उचित नहीं है, क्योंकि यह परस्पर विरुद्ध होने से व्याहत होता है । साध्य के बिना अविनाभावित्व नहीं होता है, जबकि अगमकता साध्य के बिना भी संभव है । " १४७ 'अभयदेवसूरि के मत में सपक्षसत्त्व आदि का ज्ञान अविनाभावित्व लक्षण से हो जाता है । १४८
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अभयदेवसूरि यह भी स्पष्ट करते हैं कि साध्यदेश में स्थित लिङ्ग ही साध्य का गमक होता है । समुद्र में दिखाई देने वाला धूम वहां अग्नि का गमक नहीं होता, क्योंकि धूम अपने देश में स्थित साध्य का ही अविनाभावी होता है, समुद्रादि में नहीं और इसकी प्रतिपत्ति हेतु के साध्याविनाभावित्व रूप से ही हो जाती है। १४९
जैनदर्शन के प्रमुख टीकाकार प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि ने भी त्रैरूप्य का खण्डन कर निश्चित अन्यथानुपपन्नत्व नामक एक लक्षण वाले हेतु का स्थापन किया है, किन्तु उनके ग्रंथों में अकलङ्क एवं विद्यानन्द के तर्कों को ही भंग्यन्तर से प्रस्तुत किया गया है। १५० अतः यहां उन पर पृथक् विचार नहीं किया गया है।
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हेमचन्द्राचार्य कहते हैं कि बौद्धों द्वारा प्रतिपादित हेतु का त्रिरूपलक्षण अयुक्त है, क्योंकि हेतु के साथ अविनाभाव निश्चित होने से ही असिद्ध, विरुद्ध एवं अनैकान्तिक दोषों का परिहार हो जाता है । अविनाभाव का अर्थ है- साध्य के अभाव में हेतु का न होना । अर्थात् अन्यथानुपपन्नत्व ही अविनाभाव है । वह अविनाभाव असिद्ध, विरुद्ध एवं अनैकान्तिक हेत्वाभासों में नहीं पाया जाता है। त्रैरूप्य के होने पर भी यदि अविनाभाव नहीं हो तो हेतु साध्य का गमक नहीं होता है । यथा- "वह श्यामवर्ण है, मैत्र का पुत्र होने से, मैत्र के अन्य पुत्रों के समान” इस वाक्य में मैत्रपुत्रत्व हेतु पक्ष “ वह” में विद्यमान है, सपक्ष 'मैत्र के अन्य पुत्रों' में विद्यमान है तथा विपक्ष "मैत्रेतर पुरुष के गौरपुत्रों" में नहीं है । तथापि यह हेतु सद्धेतु नहीं है। अर्थात् साध्य का गमक नहीं है । अतः हेतु की त्रिरूपता होने मात्र कोई हेतु साध्य का गमक नहीं होता है ।
यदि विपक्ष मैत्रेतर पुरुष के पुत्रों से मैत्रतनयत्व हेतु की नियमवती व्यावृत्ति नहीं है अर्थात् मैत्र के अतिरिक्त पुरुष के भी पुत्र श्याम वर्ण के हो सकते हैं, अतः वह हेतु श्याम वर्ण बालक का गमक नहीं है । १५१ तो फिर बौद्ध विपक्ष से व्यावृत्ति रूप अविनाभाव को ही हेतु का लक्षण क्यों नहीं मान
१४७. तत्त्वबोधविधायिनी, पृ. ५९२
१४८. तत्त्वबोधविधायिनी, पृ. ५९३
१४९. तत्त्वबोधविधायिनी, पृ. ५९३
१५०. द्रष्टव्य, न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ४३८-४४१, प्रमेयकमलमार्तण्ड, भाग-२ पृ. ३२१-३२८ तथा स्याद्वादरत्नाकर, पृ.५१८
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१५१. तुलनीय - तस्मान् नियमवतोरेवान्वयव्यतिरेकयोः प्रयोगः कर्तव्यो येन प्रतिबन्धो गम्येत साधनस्य साध्येन । न्यायविन्दुटीका, २.५, पृ.११०
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