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________________ २२८ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा अर्थ नहीं है ।१३७ बौद्ध - पक्षधर्मत्व से असिद्ध हेत्वाभास, सपक्ष-सत्त्व से विरुद्ध हेत्वाभास तथा विपक्षासत्त्व से अनैकान्तिक हेत्वाभास का निराकरण होता है । अत : तीन हेत्वाभासों का निराकरण करने के लिए त्रैरूप्य हेतुलक्षण उपपन्न है ।१३८ विद्यानन्द- बौद्ध कथन उचित नहीं है, क्योंकि हेतु के एक लक्षण अन्यथानुपत्ति के निश्चय से ही असिद्ध,,विरुद्ध एवं अनैकान्तिक इन तीनों दोषों या हेत्वाभासों का परिहार हो जाता है । जो हेतु स्वयं असिद्ध होता है उसमें अन्यथानुपपत्ति नियम का निश्चय होना संभव नहीं है । अनैकान्तिक एवं विरुद्ध हेतुओं में भी अन्यथानुपपन्नत्व घटित नहीं होता है । अन्यथानुपपन्नत्व का ही दूसरा रूप तथोपपन्नत्व है जिसका अर्थ है-साध्य के होने पर ही हेतु का होना। इस प्रकार अन्यथानुपपत्ति लक्षण से ही असिद्धादि दोषत्रय का निराकरण हो जाता है। यदि पक्षधर्मत्व आदि रूपत्रय अविनाभाव नियम का विस्तार होने से हेतुलक्षण हो सकते हैं तो फिर बौद्धों के द्वारा क्यों नहीं नैयायिकों की भांति पांचरूप्य स्वीकार कर लिया जाता है ? नैयायिक पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व की भांति असत्प्रतिपक्षत्व एवं अबाधितविषयत्व को भी हेतुलक्षण स्वीकार करते हैं। ये पांचों रूप भी अविनाभाव नियम के ही विस्तार हैं,किन्तु पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व आदि के अभाव में भी साध्याविनाभावी हेतु साध्य का गमक होने से सद्हेतु हो सकता है। अतः यह विस्तार मानना उचित नहीं है । १३९ बौद्ध - पक्षधर्मत्वादि तीन रूपों के होने पर ही हेतु में अन्यथानुपपन्नत्व या साध्य के साथ प्रतिबन्ध देखा जाता है इसलिए तीन रूप मानना आवश्यक है। विद्यानन्द- काल,आकाश आदि को भी फिर तो अविनाभाव का विस्तार माना जा सकता है,क्योंकि उनके होने पर ही अन्यथानुपपन्नत्व देखा जाता है । यदि काल,आकाश आदि हेतु-अहेतु में समान होने से हेतुलक्षण नहीं कहे जा सकते ,तो पक्षधर्मत्वादि में भी यह बात समान है। पक्षधर्मत्व आदि भी हेतु-अहेतु में साधारण रूपेण पाये जाते हैं१४° तथा असाधारण स्वभाव ही लक्षण कहा जा सकता है,क्योंकि वह व्यभिचार रहित होता है,यथा अग्नि का असाधारण स्वभाव उष्णता उसका लक्षण है। त्रैरूप्य,हेतु का असाधारण स्वभाव नहीं है,क्योंकि वह हेत्वाभास में भी पाया जाता है अतः उसे हेतु का लक्षण नहीं कहा जा सकता।१४१ १३७. प्रमाणपरीक्षा, पृ.४७-४८ १३८. हेतोनिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः । असिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः ||-प्रमाणवार्तिक ३.१५, उदत, प्रमाणपरीक्षा, पृ.४८ । १३९. प्रमाणपरीक्षा, पृ.४८ १४०. द्रष्टव्य, प्रमाणपरीक्षा, पृ.४८-४९ १४१. असाधारणो हिस्वभावो भावलक्षणमव्यभिचारादग्नेरोखण्यवत् । नच त्रैरूप्यस्यासाधारणता तद्धेतौ तदाभासेऽपि तस्य समुद्भवात् । ततो न तद्हेतुलक्षणं युक्तं पंचरूपत्वादिवत् ।- तत्वार्थश्लोकवार्तिक, भाग-३, पृ.२७३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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