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________________ २२४ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा का ग्रन्थ अनुपलब्ध है,किन्तु बौद्धाचार्य शान्तरक्षित ने उनके मत का तत्वसङ्ग्रह में उपन्यास किया है,अतःउसी आधार परपात्रस्वामी कृत खण्डन को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। प्रभाचन्द्र एवं वादिदेव के ग्रंथों में उनके पूर्ववर्ती आचार्यों के तर्को का ही आलम्बन लिया गया है ,अतः यहां प्रभाचन्द्र एवं वादिदेवसूरि की चर्चा नहीं की गयी है। बौद्ध त्रैरूप्य हेतुलक्षण का खण्डन करने वाले जैन दार्शनिकों में पात्रस्वामी अथवा पात्रकेसरी को सर्वाधिक महत्त्व दिया जा सकता है, क्योंकि उन्होंने बौद्ध त्रैरूप्य का खण्डन करने के लिये 'त्रिलक्षणकदर्थन ११ नामक पृथक् ग्रंथ की रचना की जिसका प्रभाव शान्तरक्षित जैसे बौद्ध तार्किक पर भी हुआ। इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि अकलङ्क,विद्यानन्द,अभयदेव,प्रभाचन्द्रादि उत्तरवर्ती जैन दार्शनिकों द्वारा किये गये त्रैरूप्य खण्डन में पात्रस्वामी कृत खण्डन मार्गदर्शक बना । बौद्ध त्रैरूप्य के खण्डनार्थ प्रयुक्त एक कारिका को उनके उत्तरवर्ती लगभग सभी जैन दार्शनिकों ने उद्धत किया है, जिसमें यह प्रतिष्ठित किया गया है कि जहां हेतु में अन्यथानुपपन्नत्व है वहां त्रिलक्षणता का कोई प्रयोजन नहीं है तथा जिस हेतु में अन्यथानुपपन्नत्व नहीं है उस हेतु में भी विलक्षणता निरर्थक है ।१९२ वह कारिका है अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम्? । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ?११३ सम्प्रति पात्रस्वामी विरचित ग्रन्थ त्रिलक्षणकदर्थन अनुपलब्ध है इसलिए उनके द्वारा किये गये बौद्ध त्रैरूप्य-निरसन को बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित की कृति तत्वसङ्ग्रह से प्रस्तुत किया जा रहा है। ___ अन्यथानुपपन्न हेतु ही सद्हेतु है,त्रिलक्षण हेतु नहीं,क्योंकि तत्पुत्रत्वादि हेतुओं में त्रिलक्षणता के होने पर भी अन्यथानुपपन्नत्व के अभाव में सद्हेतुता नहीं है, अतः त्रिलक्षणता निष्फल है। ११४ जिस प्रकार लोक में तीन पुत्रों के पिता को एक सुपुत्र के नाम से पुकारा जाता है उसीप्रकार तीन रूपों में भी अन्यथानुपपत्ति लक्षण से ही हेतु को जाना जाता है । ११५ हेतु के तीन रूपों में अविनाभाव सम्बन्धमानना उचित नहीं है क्योंकि साध्य के अभाव में नहीं होना मात्र एक अंगही सद्धेतु में उपलब्ध १११. इस ग्रन्थ के नामोल्लेखार्थ द्रष्टव्य, अनन्तवीर्य कृत सिद्धिविनिश्चयटीका, ६.२, पृ. ३७१-७२ ११२. उद्धत (१) अकलङ्क न्यायविनिश्चय २.१५४-५५ (२) विद्यानन्द, प्रमाणपरीक्षा, पृ.४९ (३) वादिदेवसूरि, स्याद्वादरलाकर, पृ.५२१ (४) हेमचन्द्र, प्रमाणमीमांसा, पृ.४० ११३. इस कारिका के आधार पर विद्यानन्द ने पांचरूप्य के निरसनार्थ नयी कारिका का उढेंकन किया है अन्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पञ्चभिः कृतम् । नान्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पञ्चभिः कृतम् ॥-प्रमाणपरीक्षा, पृ.४९ ११४. अन्यथानुपपन्नत्वे नन दृष्टा सहेतता। नासति त्र्यंशकस्यापि तस्मात् क्लीवास्त्रिलक्षणाः ॥-तत्वसंग्रह, १३६३ ११५. यथा लोके त्रिपुत्रः सन्नेकपुत्रक उच्यते । तस्यैकस्य सुपुत्रत्वात् तघेहापि च दृश्यताम् ।।- तत्त्वसङ्ग्रह, १३६५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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