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बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा
स्वरूप में तो वह निर्णयात्मक नहीं है, क्योंकि तब 'सर्वचित्तचैत्तानामात्मसंवेदनं प्रत्यक्षम् ' इस स्वसंवेदन रूप निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के लक्षण से विरोध उत्पन्न हो जायेगा। यदि फिर भी उसे निर्णयात्मक माना जाए तो चक्षु आदि इन्द्रियों से उत्पन्न ज्ञान स्व एवं पर का निर्णयात्मक क्यों नहीं होता ? और यदि स्व एवं अर्थ का अध्यवसाय चक्षु आदि इन्द्रियों का सिद्ध है तो किससे किसका तिरस्कार होगा ? इसीलिए विकल्प को स्वरूप से निर्णायक नहीं मानना चाहिए।
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यदि अर्थरूप में विकल्प निर्णयात्मक है तो ऐसा मानने पर एक विकल्प के निर्णय एवं अनिर्णय ये दो स्वभाव मानने पडेंगें। यदि वे दोनों स्वभाव परस्पर विकल्प से भिन्न हैं तो किस सम्बन्ध से वे विकल्प से सम्बद्ध हैं? आप समवायादि सम्बन्ध को स्वीकार करते नहीं है । अतः विकल्प निर्णयात्मक होने से बलवान् है, यह सिद्ध नहीं होता ।
निर्णय एवं अनिर्णय स्वभाव का परस्पर एवं उनके विकल्प से तादात्म्य सम्बन्ध स्वीकार किया जाता है, तो भी उपयुक्त नहीं है, क्योंकि जो विकल्प स्वरूप से अनिर्णयात्मक है वह बाह्यार्थ में निर्णय स्वभाव वाला कैसे होगा ? बाह्यार्थ में निर्णय स्वभाव वाला होने पर स्वरूप से उसे निर्णयात्मक मानना होगा, क्योंकि स्वरूप का निश्चय किये बिना विकल्प अर्थ का निश्चय नहीं करता है । जिस प्रकार दूसरों का ज्ञान अपने अनुभव का विषय नहीं होता उसी प्रकार विकल्प का स्वरूप जाने बिना वह अपना विषय नहीं होता। उस विकल्प का विकल्पान्तर से भी निश्चय नहीं हो सकता, क्योंकि उसका अन्य विकल्पान्तर से निश्चय करने का प्रसंग उपस्थित होगा, फलतः अनवस्था दोष आ जायेगा । अतः तदाकार का विषय नहीं होने से विकल्प्य अर्थ का अभाव होने के कारण दृश्य एवं विकल्प्य अर्थों के एकत्व का अध्यवसाय नहीं हो सकता ।
इस प्रकार विकल्प प्रचुरविषय वाला होने से एवं निर्णायक होने से बलवान् नहीं है । तब उससे निर्विकल्पक का तिरस्कार होना संभव नहीं है। अतः यह कहा जा सकता है कि विकल्प द्वारा अविकल्प का एकत्व अध्यवसाय नहीं किया जाता ।
आगे अभयदेवसूरि बौद्धों से कहते हैं कि यदि अविकल्पक ज्ञान द्वारा विकल्प पर एकत्व का अध्यारोप किया जाता है, तो बताइए इसका निश्चय कैसे होता है? यदि अस्पष्ट एवं अस्वलक्षण प्राही विकल्प में स्पष्ट एवं स्वलक्षण ग्राही अविकल्पक ज्ञान की प्रतीति होने पर एकत्व के अध्यारोप का ज्ञान होता है तो यह मन्तव्य उचित नहीं है। यदि विकल्पज्ञान में अविकल्पक ज्ञान की प्रतीति होती है, इसलिए विकल्प ज्ञान पर अविकल्प का आरोप होता है तो प्रश्न उठता है कि अविकल्प का आरोप कैसे होता है? यदि अविकल्प के स्पष्टता आदि धर्म विकल्प में दिखाई देते हैं इसलिए अविकल्प का विकल्प पर आरोप सिद्ध होता है तो यह धारणा भी भ्रान्त है, क्योंकि अविकल्प में स्पष्टता आदि धर्म स्वीकार नहीं किये जा सकते । वस्तुतः विकल्प के अतिरिक्त अविकल्प का अनुभव नहीं होता है जिससे स्पष्टता आदि धर्मों की कल्पना की जा सके। अविकल्प में स्पष्टता आदि धर्मों का ज्ञान
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