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________________ १६६ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा आदि का अनुभव पुरुष को पहले हुआ है उससे उसकी अर्थ में प्रवृत्ति होती है । जब तक अर्थ का ज्ञान नहीं हो जाता तब तक उसमें प्रवृत्ति नहीं होती, अन्यथा शुक्ल अर्थ को जानता हुआ ज्ञान नील अर्थ में प्रवर्तक हो जायेगा । निर्विकल्पक ज्ञान वर्तमान अर्थ में प्रवृत्त नहीं करता,अन्यथा विकल्प के बिना भी सर्वत्र प्रवृत्ति का प्रसंग आ जाएगा। सुख हेतु के निश्चय के बिना पुरस्थित वस्तु के प्रकाशनमात्र से कोई प्रवृत्ति नहीं करता है । विकल्प ही पुरोव्यवस्थित अर्थ का ग्राही होता है,क्योंकि वही प्रवर्तक होता है । अक्षानुसारी होने से वही प्रत्यक्ष है एवं पूर्वदृष्ट नामादि विशेषणों का प्राही होने से निश्चयात्मक है। बौद्ध-नैयायिकों का कथन असंगत है,क्योंकि विकल्पात्मक ज्ञान अस्पष्ट होता है जबकि निर्विकल्पक ज्ञान स्पष्ट होता है। धूमपाही प्रत्यक्ष के अतिरिक्त जिस प्रकार अग्नि का अनुमान अस्पष्ट आकार वाला होता है उसी प्रकार विशददर्शन युक्त अर्थ के आकारकज्ञान के अतिरिक्त विकल्प अस्पष्ट आकार वाला होता है,क्योंकि वह प्रत्यक्षदर्शन के समय अनुभव में नहीं आता । पूर्वदृष्ट विशेषण मात्र का अध्यवसाय करने वाले विकल्प एवं पुरोवर्ती अर्थ का स्पष्ट अवभासन करने वाले प्रत्यक्ष को एक नहीं कहा जा सकता। ये दोनों भिन्न-भिन्न हैं। यदि पुरोवर्ती अर्थ को विकल्प प्रकाशित करने में समर्थ है तो भी उससे प्रवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि प्रवृत्तिविधायक अर्थक्रिया में समर्थ रूप का वह अवभासन नहीं करता। अर्थक्रिया में समर्थ रूप का प्रकाशन होने पर ही अर्थकियार्थी प्रवृत्त होते हैं । वस्तुतः अर्थक्रिया का सम्बन्ध वर्तमान समय में स्थित अर्थ से होता है । विकल्प उस अर्थक्रिया-सम्बन्ध को प्रदर्शित करने में असमर्थ होता है,क्योंकि उस समय विकल्पबुद्धि विद्यमान नहीं रहती,मात्र अर्थ के स्वरूप का अवभासन रहता है। अर्थ के स्वरूप के अवभासन मात्र से ही अर्थक्रिया के सम्बन्ध का अवभासन हो जाता है । अतः यह कहा जा सकता है कि पुरोवर्ती अर्थ में प्रवर्तमान भी विकल्प प्रवर्तक नहीं होता। पूर्वदृष्ट का अनुस्मरण करता हुआ ही व्यवहारी पुरुष उसे दृश्यमान पर आरोपित करता है। स्मृति जिस स्वरूप का अध्यवसाय करती है वह प्रत्यक्ष मार्ग में उपयुक्त नहीं है,क्योंकि स्मृति एवं प्रत्यक्ष में अर्थाकार का भेद होता है। प्रत्यक्ष एवं स्मरण दोनों एक विषय को धारण नहीं कर सकते, क्योंकि पूर्वदृष्ट को देखता हूँ ऐसा निश्चय दोनों के भिन्न-भिन्न विषयों को द्योतित करता है । दोनों में एकता मानने पर बौद्ध,नैयायिकों से प्रश्न करते है कि स्मर्यमाण रूप दृश्यमान के रूप में प्रतीत होता है अथवा दृश्यमान रूप स्मर्यमाण के रूप में प्रतीत होता है ? इन दोनों विकल्पों में से यदि प्रथम विकल्प को सम्यक् मानते हैं तो स्मर्यमाण के स्पष्ट रूप से प्रत्यक्ष मान लेने पर वह परोक्ष नहीं रह सकेगा तथा यदि दूसरा विकल्प सम्यक् मानते हैं तो दृश्यमान के स्मर्यमाण रूप में अवभासित होने पर समस्त ज्ञान परोक्ष हो जायेगा । अतः यह मानना चाहिए कि प्रत्यक्षज्ञान वर्तमान रूप का ही ज्ञान कराता है,स्मृति उसका स्पर्श नहीं करती । स्मृति परोक्ष है, अतः स्मरण एवं प्रत्यक्ष का ऐक्य संभव नहीं है । स्मरण अविशद ज्ञान कराता है,प्रत्यक्ष से अर्थ का विशद ज्ञान होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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