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प्रत्यक्ष-प्रमाण
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से होने वाले प्रत्यक्ष में शब्द संस्पर्श नहीं होता है । शब्द श्रोत्रपाह्य होता है । श्रोत्रग्राह्य वैश्वरी वाक् का ग्रहण चक्षुजन्य प्रत्यक्ष नहीं करता है,क्योंकि वाक् उसका विषय नहीं है। इसलिए प्रत्यक्ष को वाग्रूपता से रहित एवं निर्विकल्पक मानना चाहिए ।२७८ नैयायिक-वस्तु का विशेषण-विशेष्य भावपूर्वक ग्रहण होता है। यही कल्पना है। नियत देश-काल आदि में दृश्यमान वस्तु व्यवहार के लिए उपयोगी होती है। देशादि के संसर्ग से रहित वस्तु कभी भी अनुभव में नहीं आती है और जो देशादि से विशिष्ट वस्तु का ग्रहण होता है वह कल्पना है। यह आवश्यक नहीं है कि इसमें वस्तु के नाम का उल्लेख हो । नामोल्लेख के अभाव में भी वस्तु का विशेषण-विशेष्य भावपूर्वक ग्रहण करना प्रत्यक्ष ज्ञान की सविकल्पलकता है । २७९ बौद्ध-नैयायिकों का कथन भी असत् है,क्योंकि प्रत्यक्ष पुरोवर्ती नीलादि को देखने में समर्थ होता है,उससे युक्त भूतल को नहीं,और भूतल को जाने बिना यह कैसे कहा जा सकता है कि भूतलविशिष्ट नीलादि का प्रत्यक्ष होता है। शुद्ध नीलादि का ग्रहण होने के कारण विशेषणविशेष्य भाव का ग्रहण होना नहीं कहा जा सकता । प्रत्यक्ष में स्व स्वरूप के व्यवस्थित रूप एवं आलोक का ग्रहण होता है उनसे अतिरिक्त देशकालादि का ग्रहण नहीं होता है । अतःदेशादि से विशिष्ट ज्ञान का मन्तव्य खण्डित हो जाता है।
यदि नैयायिक फिर भी विशेषण-विशेष्य भाव का प्रत्यक्ष स्वीकार करते हैं तो प्रश्न होता है कि समानकाल के दो अर्थों में विशेषणविशेष्य भाव का प्रत्यक्ष होता है अथवा भिन्नकाल के दो अर्थों में ? भिन्नकाल के दो अर्थों में तो विशेषण-विशेष्य भाव हो नहीं सकता, क्योंकि उनका युगपत् प्रतिभास नहीं होता। पहले जिस क्षण विशेषण धन आदि का ज्ञान होता है उस क्षण उसके स्वामी आदि विशेष्य का ज्ञान नहीं होता। अतः धन विशिष्ट स्वामी का प्रत्यक्ष से ग्रहण नहीं होता । तुल्यकाल के अर्थों में भी विशेषण-विशेष्य भाव का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी स्थिति नहीं है। विशेषण-विशेष्य भाव से रहित दण्ड एवं पुरुष के संयोग में भी कोई दण्डविशिष्ट पुरुष के रूप में उसे दण्डी कहता है,अन्य उसी को पुरुषविशिष्ट दण्ड के रूप में यह उसका दण्ड है' इस प्रकार कहता है तथा जिसे विशेषण-विशेष्य भाव का ज्ञान नहीं है वह उन्हें स्वतंत्ररूपेण दण्ड एवं पुरुष के रूप में देखता है। वस्तुतः प्रत्यक्ष के द्वारा दण्ड एवं पुरुष स्वतंत्र रूप से ज्ञात होते हैं। उनका विशेषण विशेष्यभाव कल्पना से आरोपित है।
विशेषण का संयोजन तो स्मरण से उत्पन्न होता है । अतः वह मानसिक कल्पना मात्र है । उसमें अर्थ की सन्निधि की आवश्यकता नहीं होती ।२८० नैयायिक-यदि पुर स्थित अर्थ का प्राही विकल्प नहीं है तो उस अर्थ में प्रवृत्ति कैसे होगी ?जो विशेषण २७८. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख २७९. द्रष्टव्य, परिशिष्ट - ख २८०. द्रष्टव्य, परिशिष्ट-ख
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