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भूमिका महात्मा गाँधी कहा करते थे कि विश्व के इतिहास में ऐसे विचारक तो मिलते हैं जिन्होंने ईश्वर को स्वीकार नहीं किया,किन्तु कोई ऐसा विचारक नहीं मिलता जिसने सत्य को स्वीकार न किया हो । ईश्वर को न मानने पर भी सत्य की खोज में सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाली परम्पराओं में दो परम्पराएं हैं - बौद्ध तथा जैन । इन दोनों परम्पराओं में ऐसे ईश्वर को कोई मान्यता नहीं दी गयी जो सृष्टि का स्रष्टा अथवा नियन्ता हो तथापि ये दोनों परम्पराएं सत्य की खोज को अत्यन्त महत्त्व देती हैं । सुत्तनिपात में महात्मा बुद्ध कहते हैं कि रसों में सत्य का रस सबसे अधिक स्वादु है - सच्चं हे व सादुतरं रसानं (१.१०.२)। आगे वे कहते हैं कि शाश्वत धर्म यह है कि सत्य वाणी ही अमृत है - सच्चं वे अमता वाचा (३.२९.४) । वे पुनः कहते हैं कि असत्यवादी नरक में जाता है - अभूतवादी निरयं उपेति (३/३६/५) । इन वक्तव्यों में सत्य के तीन आयाम अभिव्यक्त हो रहे हैं :
१.सत्य-तत्त्वमीमांसीय अवधारणा के रूप में २.सत्य वाणी- आप्तवाक्य की अवधारणा के रूप में ३. सत्य भाषण - आचारशास्त्रीय अवधारणा के रूप में
भगवान महावीर ने भी सत्य में बुद्धि स्थिर करने का उपदेश दिया है - सच्चंमि धिइं कुव्वह (आचाराङ्ग१/३/२) आगे उन्होंने कहा है कि हे पुरुष ! तुम सत्य को ही जानो-पुरिसा! सच्चमेव समभिजाणहि (आचाराङ्ग१/३/३) । असत्य प्ररूपणा करने वाले संसार के पार नहीं जा सकते - जे ते उ वाइणो एवं न ते संसारपारगा (सूत्रकृताङ्ग १/१/१/२१)। प्रश्नव्याकरण में तो सत्य को भगवान् ही बता दिया गया है-तं सच्चं भगवं (प्रश्नव्याकरण २/२) । आगे कहा गया है संसार में सत्य ही सारभूत है - सच्चं लोगम्मि सारभूयं (प्रश्नव्याकरण २/२) (प्रस्तुत ग्रन्थ का प्रकाशन करने वाली संस्था का यही आदर्श वाक्य है) । मृषावाद का त्याग अणुव्रत के रूप में श्रावक के लिये तथा महावत के रूप में मुनि के लिये अनिवार्यतः विहित
इस प्रकार जैनपरम्परा में भी तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से सत्य, आप्तवाक्य की दृष्टि से सत्यवाणी तथा आचारशास्त्रीय दृष्टि से सत्य भाषण को वही महत्त्व प्राप्त है जो बौद्ध परम्परा में है । जैन परम्परा में तत्त्वमीमांसीय सत्य अनेकान्त के रूप में,आप्तवाक्य स्याद्वाद के रूप में तथा सत्यभाषण व्रत के रूप में प्रतिपादित हुए। ___ आगम-युग का सत्य ही दार्शनिक युग का प्रमा है तथा प्रमा का करण ही प्रमाण है । दार्शनिक युग में इस प्रमाणशास्त्र का इतना अधिक विस्तार हुआ कि प्रमेयों का निरूपण गौण हो गया और प्रमाण का निरूपण ही मुख्य हो गया । वैदिक-परम्परा में तो प्रमाण का निरूपण करने वाला 'न्याय' एक स्वतंत्र दर्शन के रूप में ही प्रतिष्ठित हो गया तथा उसका सम्बन्ध
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