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________________ बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैनदृष्टि से समीक्षा ६. बौद्ध दार्शनिक अनुमान प्रमाण को भ्रान्त मानते हैं, जबकि जैन दार्शनिक उसे प्रत्यक्ष की भांति ही अभ्रान्त एवं सम्यक् मानते हैं । iv ७. अनुमान के स्वार्थ एवं परार्थभेदों का सर्वप्रथम प्रणयन बौद्धों ने किया था, जिन्हें अन्य भारतीय दर्शनों की भांति जैनों ने भी अपनाया है। सिद्धसेन, शान्तिसूरि एवं वादिदेवसूरि ने तो अनुमान की भांति प्रत्यक्ष के भी स्वार्थ एवं परार्थ प्रकार बतलाये हैं । ८. हेतु-लक्षण को लेकर दोनों परम्पराओं में गहरा मतभेद है। बौद्धदार्शनिक जहां हेतु में पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व एवं विपक्षासत्त्व रूप त्रैरूप्य का होना अनिवार्य मानते हैं वहां जैन दार्शनिक विपक्षासत्त्व रूप साध्याविनाभावित्व अथवा अन्यथानुपपत्तित्व को ही हेतु का एकमात्र लक्षण मानते हैं । ९. बौद्धों ने स्वभाव, कार्य एवं अनुपलब्धि नामक तीन हेतु अङ्गीकार किए हैं, जबकि जैनों ने कारण पूर्वचर, उत्तरचर एवं सहचर हेतुओं को भी संव्यवहार के लिए उपयोगी समझकर बलपूर्वक स्थापित किया है। अनुपलब्धि हेतु को बौद्ध दार्शनिक निषेधसाधक मानते हैं वहां जैनों ने उसे विधि एवं निषेध दोनों का साधक माना है । १०. बौद्ध जहां स्वभाव एवं अनुपलब्धि हेतुओं में तादात्म्य द्वारा एवं कार्यहेतु में तदुत्पत्ति द्वारा अविनाभाव मानते हैं वहां जैन दार्शनिक इसका खण्डन करते हैं। I ११. परार्थानुमान में जैनदार्शनिक पक्षवचन अर्थात् प्रतिज्ञा को आवश्यक मानते हैं जबकि बौद्ध दार्शनिक इसे अनावश्यक मानते हैं। वे हेतु में पक्षधर्मत्व को अनिवार्य मानते हैं जबकि जैनदार्शनिक इसके बिना भी हेतु को सद्धेतु मान लेते हैं । १२. दृष्टान्त को परार्थानुमान का पृथक् अवयव नहीं मानने के सम्बन्ध में दोनों परम्पराएं सहमत हैं किन्तु, बौद्धों ने सपक्षसत्त्व के रूप में उसका हेतुलक्षण में ग्रहण कर लिया है। १३. अन्य भारतीय दर्शनों की भांति बौद्ध जहां स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं तर्क को अप्रमाण मानते हैं वहां जैन दार्शनिकों ने उन्हें युक्तिपुरस्सर प्रमाण रूप में प्रतिष्ठापित किया है। भारतीय न्याय को यह जैनों का अनूठा योगदान है। १४. बौद्धों ने आगम या शब्द को पृथक् रूप से प्रमाण न मानकर अपोह सिद्धान्त के अनुसार उसका अनुमान प्रमाण में अन्तर्भाव किया है जबकि जैन दार्शनिकों ने शब्द या आगम का पृथक् प्रामाण्य स्थापित कर बौद्धों के अपोहवाद का खण्डन किया है। १५. बौद्धों के अनुसार शब्द का अर्थ के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है, किन्तु जैन दार्शनिक शब्द एवं अर्थ में योग्यता सम्बन्ध से संकेत ग्रहण मानते हैं। १६. बौद्ध एवं जैनदर्शन में छल जाति आदि के प्रयोग को अन्याय्य बतलाया गया है तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002113
Book TitleBauddh Pramana Mimansa ki Jain Drushti se Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1995
Total Pages482
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Culture, & Religion
File Size20 MB
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