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प्राक्कथन
काल-क्रम को ध्यान में रखा गया है। द्वितीय,तृतीय एवं चतुर्थ अध्याय के खण्डन से सम्बद्ध संस्कृत मूल ग्रंथों के उन अंशों को परिशिष्ट में दिया गया है जो प्रायः दुर्लभ हैं। ___प्रामाण्यवाद,साध्य,व्याप्ति,हेत्वाभास,दृष्टान्त ,दृष्टान्ताभास आदि कुछ विषयों पर जैन एवं बौद्ध दार्शनिकों में विशेष मतभेद नहीं रहा । प्रमुखतः जिन विषयों पर मतभेद या विरोध रहा है उन्हें संक्षेपतः इस प्रकार रखा जा सकता है। १.बौद्ध दार्शनिक जहां प्रमाणव्यवस्थावादी हैं वहां जैन दार्शनिक प्रमाणसंप्लववादी हैं । बौद्ध दर्शन में स्वलक्षण एवं सामान्यलक्षण नामक दो प्रमेयों के लिए पृथक्-पृथक् प्रमाणों (प्रत्यक्ष एवं अनुमान) की कल्पना की गयी है जबकि जैनदर्शन में सामान्यविशेषात्मक एक ही प्रमेय को विभिन्न प्रमाणों का विषय स्वीकार किया गया है । एक प्रमाण के द्वारा जाने गए प्रमेय को जैनदर्शन के अनुसार अन्य प्रमाणों से भी जाना जा सकता है । २.प्रमाण की अविसंवादकता दोनों को मान्य है,किन्तु उसके अभिप्राय में भेद है । बौद्धदर्शन में अविसंवादकता का अर्थ है -अर्थक्रिया स्थिति,अवञ्चकता,अर्थप्रापकता या अर्थप्रदर्शकता, किन्तु जैनदर्शन में प्रमाणान्तरों से अबाधित एवं पूर्वापर विरोध से राहित्य को अविसंवादकता मानकर उसे निश्चयात्मकता के अधीन अङ्गीकार किया गया है। ३. प्रमाण को ज्ञानात्मक स्वीकार करने में दोनों दर्शन एकमत हैं, किन्तु बौद्धदर्शन में प्रत्यक्ष को निर्विकल्पक माना गया है,जबकि जैनदार्शनिकों ने उसे विशद एवं व्यवसायात्मक होने के कारण सविकल्पक सिद्ध किया है । सविकल्पकतां की सिद्धि में उन्होंने अनेक हेतु दिए हैं। जैन दार्शनिकों की मान्यता है कि निश्चयात्मक ज्ञान ही हान,उपादान एवं उपेक्षा रूप व्यवहार के लिए उपयोगी होता है और वह निश्चयात्मक होने के कारण सविकल्पक ही होता है। निर्विकल्पक होने के कारण जैनों ने अपने यहां मान्य 'दर्शन' को भी प्रमाणकोटि से बहिर्भूत रखा है। ४.कल्पना के स्वरूप को लेकर दोनों में गहन विचार हआ है। शब्दयोजना को कल्पना मानने परतो जैन दार्शनिक भी प्रत्यक्ष को उससे रहित प्रतिपादित करते हैं,किन्तु अभिलापसंसर्गयोग्य प्रतिभास प्रतीति को कल्पना कहने पर जैन दार्शनिक प्रत्यक्ष को उससे रहित नहीं मानते। ५. बौद्ध दर्शन में मान्य मानस-प्रत्यक्ष एवं स्वसंवेदन-प्रत्यक्ष भेद जैनों को मान्य नहीं हैं। इन्द्रिय-प्रत्यक्ष को भी वे सांव्यवहारिक-प्रत्यक्ष की ही श्रेणि में रखते हैं। अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष के रूप में बौद्धों के यहां मात्र योगिप्रत्यक्ष की चर्चा है,वहां जैन आगमों में इसके अवधिज्ञान,मनः पर्याय एवं केवलज्ञान भेद प्रतिपादित हैं । ये तीनों भेद जैन दर्शन में मुख्य प्रत्यक्ष अथवा पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहे गए हैं।
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