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________________ ✓ समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप ७९ गिद्धों आदि का भक्ष्य बनाकर मरनेवाले जीवों के मरण को गृद्धपृष्ठमरण कहा जाता है। भक्तप्रत्याख्यानमरण, इंगिनीमरण एवं प्रायोपगमनमरण की चर्चा भगवती आराधना एवं समवायांग के आधार पर यहाँ नहीं की जा रही है। इनकी विधि तथा अन्य सभी विशेषताएं सभी ग्रन्थों में प्राय: समान ही है। समाधिमरणोत्साहदीपक के आधार पर इन तीनों प्रकार के मरण पर प्रकाश डाला जा चुका है। (१७) पंडित - पंडितमरण - व्यवहार, सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र में जो पंडित हैं, उन्हें पंडित कहते हैं। पंडित के चार भेद हैं जिनकी चर्चा पूर्व में की जा चुकी है। इन चार प्रकार के पण्डित के मध्य में जिनका पण्डित्य, ज्ञान, दर्शन और चारित्र में अतिशयशाली है, उन्हें पण्डित - पण्डित कहते हैं। ऐसे जीव के मरण को पंडितपंडितमरण कहते हैं । १ इस प्रकार हम देखते हैं कि मरण के मुख्य रूप से दो ही प्रकार हैं१. विवेकसहितमरण और २. विवेकहीनमरण । मरण के इन्हीं दोनों भेदों का उपविभाग करते-करते कहीं इनकी संख्या दो मानी गई है, कहीं पाँच और किसी-किसी ग्रंथ में इसके १४ भेद कर दिए गए हैं, तो किसी में इसके १७ प्रकार भी मिलते हैं। वस्तुतः मरण के ये भेद मृत्यु ग्रहण की जानेवाली विभिन्न प्रकार की विधियों पर आधारित हैं। समाधिमरण और आत्महत्या में अन्तर समाधिमरण और आत्महत्या दोनों ही में स्वेच्छापूर्वक देहत्याग किया जाता है। इसी कारण सामान्य व्यक्ति समाधिमरण और आत्महत्या को एक समझ लेते हैं। वस्तुत: ऐसी बात नहीं है। समाधिमरण और आत्महत्या में मूलभूत अन्तर है । जहाँ व्यक्ति मुख्य रूप से अपनी समस्याओं से ऊबकर मन की सांवेगिक अवस्था से ग्रसित होकर आत्महत्या करता है, वहीं समाधिमरण में व्यक्ति मन की सांवेगिक अवस्थाओं से पूरी तरह मुक्त होकर समभावपूर्वक मृत्यु का वरण करता है। आत्महत्या व्यक्ति क्यों करता है ? इस प्रश्न पर थॉमस जी मसारक ने अपने विचार इस प्रकार प्रस्तुत किए हैं- व्यक्ति अपनी समस्याओं से घिरा रहता है, वह उन समस्याओं से मुक्त होना चाहता है, इसके लिए वह अथक प्रयास करता है, लेकिन जब वह इन समस्याओं से मुक्त नहीं हो पाता है तो आत्महत्या या प्राणघात करके समस्याओं से छुटकारा पा लेता है। आत्महत्या किन-किन परिस्थितियों एवं समस्याओं के कारण किया जाता है, इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए वे लिखते हैं-- व्यक्ति प्राकृतिक तथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
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