________________
तृतीय अध्याय
समाधिमरण एवं मरण का स्वरूप
मृत्यु की अपरिहार्यता
जन्म और मृत्यु जीवन रूपी शृंखला के दो छोर हैं। जन्म जीवन का एक शरीर प्रारम्भ है तो मृत्यु उस शरीर में उसकी समाप्ति का सूचक । जन्म की अन्तिम परिणति मृत्यु में है। जन्म के साथ मृत्यु अनिवार्य रूप से जुड़ी है। जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है। अगर जीने का अपना मूल्य है तो मरने का भी अपना अलग मूल्य है। जीवन में संयोग का सुख है इस कारण जीना अच्छा लगता है, जबकि मृत्यु में वियोग का दुःख है, अत: वह अच्छी नहीं लगती है। फिर भी मृत्यु की अनिवार्यता या अपरिहार्यता से कोई इन्कार नहीं कर सकता है । मृत्यु अपरिहार्य है। इसे स्पष्ट करते हुए आचारांग से कहा गया है मृत्यु अनागम (नहीं आना) नहीं है।' मृत्यु अवश्य ही आयेगी । यह अवश्यंभावी योग है, अपरिहार्य स्थिति है। लाख प्रयत्न करने पर भी इससे बचा नहीं जा सकता । तात्पर्य यह है कि मृत्यु प्राणी की एक विवशता है। वह जन्मा है, इसलिए उसे मरना भी होगा। यही ध्रुव सत्य है। इसी बात को गीताकार ने स्पष्ट करते हुए कहा है कि मृत्यु निश्चित है अर्थात् जो जन्मा है, वह निश्चचित ही मरेगा। अतः मरना निश्चित ही है तो इस निश्चि मृत्यु से भय कैसा? परन्तु व्यक्ति इससे भयभीत रहता है और आनेवाली अपनी सम्भावित मृत्यु से बचने का प्रयत्न करता रहता है, परन्तु उसम सफल नहीं हो पाता है।
को
साधारणतः देखा जाता है कि व्यक्ति अपनी मृत्यु से बचने के लिए नाना प्रकार के उपायों का सहारा लेता है। लेकिन वह मृत्यु के हाथों से नहीं बच पाता है। उत्तराध्ययन में कहा गया है कि व्यक्ति जीवन भर धन आदि का संग्रह करता रहता है तथा अपनी मृत्यु दूर करने के उपायों की खोज में लगा रहता है। इस क्रम में वह नाना प्रकार के अच्छेबुरे कर्मों का सम्पादन करता रहता है। कभी वह अच्छे व शुभ कर्मों का सम्पादन करता है तो कभी बुरे कर्मों का। लेकिन उसके ये सभी प्रयत्न अन्ततः व्यर्थ हो जाते हैं और उसकी मृत्यु हो जाती है। अतः ऐसा विश्वासपूर्वक कहा जा सकता है कि कोई भी जन्म लेने वाला प्राणी मृत्यु से नहीं बच सकता है चाहे वह इससे बचने के लिए कितना भी प्रयत्न
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org