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समाधिमग्ण सम्बन्धी जैन साहित्य गृहस्था गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी व्यक्ति मोक्ष या निर्वाण की साधना कर सकता है इसी का विवरण इसमें मिलता है।"
यह आठ अध्यायों में विभक्त है। प्रथम अध्याय में गृहस्थ के लक्षण स्पष्ट किये गये हैं। गृहस्थ को आहार, भय, मैथुन एवं परिग्रहरूपी ज्वर से पीड़ित बताया गया है।३१
द्वितीय अध्याय में अनुज्ञा, अष्टमूल, मद्य, मांस, आहार नियम तथा इसी तरह की अन्य जैन शिक्षाओं का उल्लेख है।१३२
तृतीय अध्याय से सप्तम अध्याय तक नैष्ठिक श्रावक का वर्णन है। इन अध्यायों में नैष्ठिक के भेद, ग्यारह प्रतिमा, बारह व्रत, श्रावकों की दिनचर्या आदि का विवरण उपलब्ध होता है।
अष्टम अध्याय में समाधिमरण के स्वरूप, विधि, योग्य स्थान, योग्य संस्तर, समाधिमरण और आत्महत्या में अन्तर, कार्य एवं कषाय को क्षीण करनेवाली साधना का विवरण प्रस्तुत किया गया है। आहारत्याग एवं विभिन्न प्रकार के तपों का आलम्बन, समाधिमरण में सहायक आचार व उसके अतिचार, महत्त्व तथा समाधिमरण की पूरक साधनाओं का भी विस्तृत विवरण मिलता है।५३४ ५. उपासकाध्ययन
उपासकाध्ययन में सोमदेव सूरिकृत यशस्तिलकडेअन्तिम तीन आश्वास हैं। स्वयं सोमदेव ने इसका नामकरण उपासकाध्ययन किया है। यद्यपि उपासकाध्ययन यशस्तिलक का ही एक अंश है तथापि यह एक स्वतन्त्र ग्रन्थ है।१३५ ।।
उपासकाध्ययन ४६ कल्पों में विभाजित है। प्रथम कल्प सिद्धान्त बोध, द्वितीय आत्मस्वरूप मीमांसा, तृतीय आगम पदार्थ परीक्षण तथा चतुर्थ मूढ़तामन्थन का उल्लेख करता है। बाद के १६ कल्पों में सम्यग्दर्शन के आठ अंगों तथा अंजन कुमार, वज्र कुमार जैसे मुनियों के कथानक का उल्लेख है। २२वें से २५वें तक के चार कल्पों में मद्य, मांस, मधु के दोषों का वर्णन मिलता है। २६ से ३२ तक के सात कल्पों में पाँच अणुव्रतों का विवरण है। इसी प्रकार ३४ वें में सामायिक शिक्षा, ३५वें में समय सामाचार-विधि, ३६वें में पूजन-विधि, ३७ वें में स्तवन-विधि, ३८ वें में जप-विधि, ३९ वें में ध्यान-विधि, ४० वें में श्रुताराधना-विधि, ४१ वें में प्रोषधोपवास-विधि, ४२ वें में भोगोपभोग व्रत, ४३ वें में दान-विधि, ४४ वें में ग्यारह प्रतिमा, ४५वें में समाधिमरण तथा ४६ वें में जैन सिद्धान्त से सम्बन्धित कुछ अन्य बातों का विवेचन किया गया है।
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