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ही समाधिमरण करने पर जोर देता है।
समाधिशतक
समाधिमरण
समाधिशतक ग्रन्थ के रचयिता श्री पूज्यपाद स्वामी हैं। इस ग्रन्थ में १०५ श्लोक हैं।१२३ ये सभी श्लोक आत्मकल्याणकारी हैं।
इस ग्रन्थ में आकुलताओं से बचने के लिए आत्मानुभव, आत्मध्यान एवं आत्मसमाधि के अभ्यास पर बल देते हुए शरीर पर से ममत्वभाव हटाने का निर्देश मिलता है। साथ ही बाह्य आकुलताओं पर विजय पाने के लिए विभिन्न प्रकार के तपी का भी निरूपण किया गया है। १२४
इसमें समाधिमरण के स्वरूप उसके अतिचारों का भी विवरण मिलता है। प्रस्तुत कृति पर तीन टीकाएँ एवं एक वृत्ति उपलब्ध होती है। टीकाकार एवं वृत्तिकार के अनुक्रम से नाम हैं १२६ - प्रभाचन्द्र, पर्वतधर्म, यशचन्द्र तथा मेघचन्द्र |
न्यायाचार्य श्री यशोविजय जी ने भी गुजराती भाषा में समाधिशतक लिखा है।
रत्नकरण्डक श्रावकाचार
इसके रचयिता स्वामी समन्तभद्र हैं। इसे रत्नकरण्डक उपासकाध्ययन या समीचीन धर्मशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इसमें कुल १५० गाथाएँ (श्लोक) हैं।
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मूल ग्रन्थ सात अधिकारों में बँटा है- १२८
(१) सम्यग्दर्शन, (२) सम्यग्ज्ञान, (३) अणुव्रत, (४) गुणव्रत, (५) शिक्षाव्रत, (६) सल्लेखनाव्रत और (७) प्रतिमाव्रत।
इसके षष्ठाधिकार में समाधिमरण का उल्लेख मिलता है। इसमें समाधिमरण (सल्लेखना) के स्वरूप, विधि, फल (महत्त्व ), मोक्ष, स्वर्गादि वैभव का स्वरूप तथा समाधिमरण के अतिचारों पर प्रकाश डाला गया है । १२९
इसमें बताया गया है कि व्यक्ति उपसर्ग, दुर्भिक्ष, दुष्काल, अत्यधिक वृद्धावस्था आदि में अगर समाधिमरणपूर्वक देहत्याग करता है तो उसे निर्वाण की प्राप्ति हो जाती है । लेकिन व्यक्ति को समाधिमरण का यह व्रत अपने कषायों को अल्प करके ग्रहण करना चाहिए तथा मन में किसी तरह के सांसारिक भावों को स्थान नहीं देना चाहिए।
धर्मामृत (सागार)
धर्मामृत (सागार) के रचयिता पं० आशाधर जी हैं। सागार का अर्थ होता है -
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