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समाधिमरण और अन्य धार्मिक परम्पराएँ परम्परा का मृत्युवरण कुछ अर्थों में, जैसे-प्रक्रिया को लेकर भले ही कुछ भिन्न हो, लेकिन जहाँ तक भावनाओं और परिस्थितियों की बात है तो दोनों में बहुत ही ज्यादा समानता है और इससे इन्कार नहीं किया जा सकता।
सन्दर्भ:
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उपसर्गे दुर्भिक्ष जरसि रुजायां च नि:प्रतिकारे । धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः ।।रत्नकरण्डक श्रावकाचार, ५/१ उत्तराध्ययनसूत्र, ७/२, ३२. आउग्पच्चक्खाणं (दस पयण्णा), गाथा ११, पृ०- ५-६ , उवही सरीरगं चेव, आहारं च चउव्विहं ।। महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णकम् (दस पयण्णा)९, तरुदलमिव परिपक्वं स्नेहविहीनं प्रदीपमिव देहम् । स्वयमेव विनाशोन्मुखमवबुध्य करोतु विधिमन्त्यम् ।। उपासकाध्ययन, ८९१ गहनं न शरीरस्य हि विसर्जनं किं तु गहनमिह वृत्तम। तन्न स्थास्नु विनाश्यं न नश्वरं शोच्यमिदमाहुः । वही, ८९२. ज्ञानिन भय भवेत्कस्मात् प्राप्ते मृत्यु महोत्सवे । स्वरूपस्थ: पुरंयाति देहीदेहांतर स्थिति ।। मृत्युमहोत्सव, ३ जीर्ण देहादिकं सर्वं नूतनं जायते यत: । स मृत्युः किं न मोदाय सतां सातोत्थितियथा ।। वही, ८. वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि, गृहति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही । गीता, २/२२. खामेमि सव्वजीवे, सव्वे जीवा खमंतु में । महाप्रत्याख्यानप्रकीर्णक (दस पयन्ना), ७। रत्नकरण्डकश्रावकाचार, पृ०-२२६-२२८। तत्त्वार्थवार्तिक, ७/२२. एव नाणेण चरणेण, दंसणेण तवेण य। भावणाहि य सुद्धाहिं, सम्मं भावेत्तु अप्पयं ।। उत्तराध्ययनसूत्र. १९/९४. बहुयाणि उ वासाणि सामण्णमणुपालिया। मासिएण उ भत्तेण सिद्धिं पत्तो अणुत्तरं ॥ वही, १९/९५. आगर्भा दुःख संतप्तः प्रक्षिप्तो देहपंजरे । नात्मा विमुच्यते न्येन मृत्युभूमिपतिं बिना ।। मृत्युमहोत्सव, ५. देह विनासी मैं अविनासी अपनी गति पकरेंगे। नासी जासी में थिरवासी चोखे हैव निरखेंगे ।।
मरूधरकेसरी अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ०-२६७. जैन आचार, डॉ. मोहनलाल मेहता, पृ०- १२०,
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