SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समाधिमग्ण और अन्य धार्मिक परम्पगएँ ३७ धर्मरक्षार्थ प्राणों का त्याग करना उचित नहीं माना जा सकता? संभवत: इन्हीं भावनाओं से उद्वेलित होकर माण्टेस्क्यू ने वाल्तेयर के मृत्युवरण विरोधी कानून की आलोचना करते हए युद्ध के समय होनेवाली हिंसा को महापाप की संज्ञा दी हो। इसी प्रकार वेकरिया १८. (Beccaria) तथा होलबेक':: (Holbach) मृत्युवरण (आत्महत्या) के विरुद्ध बनाए गए कानून पर अपनी आपत्ति प्रकट करते हुए कहते हैं कि आत्महत्या के विरुद्ध जितने भी कानुन बनाए गए हैं वे तर्कपूर्ण नहीं हैं, असंगत हैं। ह्यूम मृत्युवरण पर चर्चा करते हुए कहते हैं-यह सिद्धान्त कि मृत्युवरण करनेवाला व्यक्ति ईश्वर द्वारा बनाए गए नियमों को तोड़ता है, तर्कपूर्ण नहीं है। अपनी वार्ता के क्रम को आगे बढ़ाते हुए वे पुन: कहते हैं कि अगर हम किसी नदी की धारा को बदलने में सक्षम हैं और यदि ऐसा करते हैं तो यह अपराध नहीं है। इसी तरह मृत्युवरण भी अपराध नहीं है।१२० नदियों की धारा की दिशा बदलकर पल, बांध बनाए जाते हैं। इस कार्य में हिंसा होती है तथा यह अप्राकृतिक कार्य माना जा सकता है। इसके कारण पर्यावरण को भयंकर खतरे का सामना करना पड़ता है। पर्यावरण-प्रदूषित हो जाता है और प्रदूषित तथा संक्रमित पर्यावरण मानव जीवन का नाश ही करता है। अत: नदी की धारा के दिशा-परिवर्तन द्वारा हम अपने मृत्युवरण को ही स्वीकार करते हैं। फिर भी यह कार्य निरंतर चलता रहता है और तर्क दिया जाता है कि यह मानव की भलाई के लिए ही किया जा रहा है। अगर मृत्युवरण भी इसी भावना को ध्यान में रखकर ग्रहण किया जाए तो क्या इसे अपराध माना जाना चाहिए अथवा नदी की धारा की दिशा बदलने जैसे कार्यों की तरह स्वीकृति प्रदान करनी चाहिए? प्लिनी मृत्युवरण का समर्थन करते हुए कहते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति मृत्युवरण या आत्मबलिदान की शक्ति रखता है तथा जब भी उसे अपनी इस शक्ति का प्रदर्शन करने में प्रसन्नता का अनुभव हो, वह अपनी इस शक्ति का प्रयोग बेहिचक कर सकता है।१२१ युद्ध की वेदी पर, ब्रह्मचर्य की रक्षा का प्रसंग उपस्थित होने पर, धर्म से पतित हो जाने की परिस्थिति में यदि व्यक्ति को देहपात करना ही पड़े तो क्या उसके मृत्युवरण को प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता है? क्या इन परिस्थितियों में देहत्याग न करके धर्म से भ्रष्ट हो जाना चाहिए? यदि नहीं तो, क्या देहत्याग का निर्णय व्यक्ति की शक्ति नहीं मानी जा सकती, अगर हाँ! तो उसे अपनी शक्ति के प्रयोग करने की स्वतंत्रता मिलनी ही चाहिए, अन्यथा वह शक्ति से युक्त शक्तिहीन प्राणी ही माना जाएगा। अतः स्पष्ट है कि साधारण परिस्थितियों में ईसाई धर्मगुरुओं ने आत्ममरण या आत्मबलिदान का समर्थन कभी भी नहीं किया है, तथापि उन्होंने कुछ विशेष परिस्थितियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002112
Book TitleSamadhimaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajjan Kumar
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year2001
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Epistemology
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy